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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन चितविषेऐसा चिंतकिवह सुखदायनी कैसे पाऊं कबउसकामुखचन्द्रमासेअधिकमेंनिरखू कबउससहितनंदन TREA| बनविषे क्रीडा करूऐसा मिथ्याचितवनकरता सन्तारूपपवरातिनीसे मुखौनामा विद्याकेाराधनेको रिम वतनामा पर्वतपर जायकर अत्यंत विषम गुफा विषेतिष्ठकर विद्याके आराधनेका आरम्भ करने लगा। जैसे दुखी जीव प्यारे मित्रको चितारे तैसे विद्याको चितारता भया। ___अथानन्तर रावण दिबिग्जय करनेको निकसा बन पर्वतादिकर शोभित पृथ्वी देखता और समस्त विद्याधरोंके अधिपति अंतर द्वीपोंके वासियोंको अपने वश करता भया । और तिनको आज्ञाकारीकर तिनहीके देशोंमें थापताभया उस रावणकी अाशा अखंडहै और विद्याधरोंमें सिंहसमान बडे २ राजा महापराक्रमी रावणने वश किये तिनको पुत्र समान जान बहुत प्रीति करता भया महंत पुरुषोंका यही धर्महे कि नमूतामात्रसे ही प्रसन्न होवें राक्षसोंके वंशमें अथवा कपिवंशमें जे प्रचंड राजाथे वे सर्व वश किये बड़ी सेनाकर संयुक्त आकाशके मार्ग गमन करता जो दशमुख पवन समानहै वेग जिसकाउस का तेज विद्याधर सहिवेको असमर्थ भए सन्ध्याकार मुवेल हेमा पूर्ण सुयोधन हंसदीप बारिहल्लादि इत्यादिद्वीपोंके गजाविद्याधर नमस्कारकर भेंट लेप्राय मिले सो रावणने मधुर बचनकह बहुत सन्तोपे और बहुत सम्पदाके स्वामी किये । जे विद्याधर बरे २ गढ़ोंके निवासीथे वे रावणके चरणारविन्द को नमीभत होय श्राय मिले जो सार वस्तु थी सो भेंट करी हे श्रेणिक ! समस्त बलों विष पुरोपा जिंत पुण्यका बल प्रक्ल है उसके उदयकर कौन वश न होय सवही बश होयहैं। . अथानन्तर रथनूपुर का राजा जो इन्द्र उसके जीलिबे को रावण गमन को प्रवरता सो जहां For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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