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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पळ करी बाली मुनि केवलज्ञानको प्राप्त भए अष्टकर्मसे रहित होय तीन लोकके शिखर अविनाशी स्थान पुराण में अविनाशी अनुपम मुखको प्राप्त भए और रावणने मनमें विचारा कि जोइन्द्रियों को जी तिन को मैं जीतिबे समर्थ नहीं इस लिये राजाओंको साधुओंकी सेवाही करनी योग्यहै ऐसा जान साधुवों की सेवामें तत्पर होता भया सम्यकदर्शन से माण्डत जिनेश्वर में दृढ़ है भाक्ति जिसकी काम भोगमें अतृप्त यथेष्ट सुख से तिष्ठता भया। __ज्योतिपुर नामा नगर वहां राजा अग्निशिख राणी ही उनकी पुत्री सुताराजो सम्पूर्ण स्त्री गणों से पूर्व सर्व पृथ्वी में रूप गुण की शोभासे प्रसिद्ध मानों कमलोंका निवास तज साक्षात् लक्ष्मी ही आईहै और राजा चक्रांक उसकी राणी अनुमति तिनका पुत्र साहसगतिमहादुष्ट एकदिन अपनी इच्छा से भ्रमणकरथा सो उसने सुताराको देखा देखकर काम शल्यसे अत्यंत दुखी होकर निरंतर सुताराको मन में धरता भया दशा जिसकी उनमत्तहे ऐसा दूत भेज सुताराको याचता भया और सुग्रीव भी बारम्बार याचता भया वह सुतारा महा मनोहर है । तब राजा अग्निशिख सुताराका पिता दुविधामें पड़ गया कि कन्या किसको देनी तब महाज्ञानी मुनिको पूछी मुनीन्द्रने कहा कि साहसगति की अल्प आयुहै और सुग्रीव को दीर्घ आयु है तब अमृत समान मुनिके बचन सुनकर राजा अग्निशिख सुग्रीवको दीर्वायु वाला जानकर अपनी पुत्रीका पाणीग्रहण कराया सुग्रीवका पुण्य विशेष है जो सुताराकी प्राप्ति भई तदनतर मुग्रीव और सुताराके अंग और अंगद दोय पुत्र भए और वह पापी साहसगाते निर्लज्ज सुताराकी आशा छोड़े नहीं धिक्कारहै काम चेष्टा को वह कामारिन कर दग्ध For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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