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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१६॥ पद्म का त्रैलोक्य मंडन नाम धरा इसको पाय रावण बहुत हर्षित भया रावणरे हाथीके लाभका बहुत उत्सव किया और सम्मेद शिखर पर्वतपर जाय यात्रा करी विद्याधरों ने नृत्य किया वह रात्रि वहांही रहे प्रभात हुवा सूर्य उगा सो मानोंदिवसने मंगलका कलश रावणको दिखाया कैसाहे दिवस सेवाकी विधि में प्रवीणहे तब रावण डेरामें प्राय सिंहासनपर विराजे हाथीकी कथा सभा में कहते भए । __ अयानंतर एक विद्याधर श्राकाशकमाग रावणके निकट पाया अत्यंत कंपायमान जिसके पसेवकी बूंद झरे हैं घायल हुआ बहुत खदखिन्न अश्रुपात डारता जर्जराहै तनु जिसका हाथ जोड़ नमस्कारकर विनती करता भया हे देव आज दशवां दिनहे राजासूर्यरज और रक्षरज बानरवंशी विद्याधर तुम्हारे बलसेहीहे बल जिनमें सो श्रापका प्रताप जान अपनी किहकू नगरलेनेकेश्रर्थ अलंकानगर जोपताललंका वहांसे उत्साह से निकसे वे दोनों भाई तुम्हारेबलसे महाअभिमान युक्तजगतको तृण समानमाने, सोउन्होंने किहकपुर जाय घेरा वहां इन्द्रका यम नामा दिग्पालथा सो उसके योधा युद्ध करनेको निकसे हाथमें हैं आयुध जिनके बानरबंशियोंके और यमके लोकोंमें महायुद्ध भया परस्पर बहुत लोक मारे गए तब युद्ध का कलकलाट सुन यम भापनिकसा कैसाहै यम महा क्रोधकर पूर्ण अतिभयंकर नसहा जायहै तेज जिसका सो यमके श्रावतेही बानर बंशियोंका बल भागा अनेक श्रायुधोंसे घायल भए यह कथा कहता २ वह विद्याधर मु को प्राप्त होगया तब रावणने शीतोपचार कर सावधान किया और पूछा कि आगे क्या भया तब वह विश्राम पाय हाथ जोड़ फिर कहता भया हे नाथ सूर्यरजका छोटा भाई रक्षरज अपने दलको ब्याकुल देख आप युद्ध करने लगे सो यमके साथ बहुत देरतक युद्ध किया यम अतिबली For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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