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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म १९६१॥ हे प्रहस्त अपनी प्रशंसा करणी योग्य नहीं में इस हाथीको एक क्षणमात्रमें वश करूंगा यह कहकर पुष्पक विमानमें चढ़कर हाथी देखा भले २ लक्षणों से मंडित इन्द्रनीलमणि समान अति सुन्दर जिस का शरीरहे कमल समान आरक्त तालुवा है और महा मनोहर उज्ज्वल दीर्घगोल दांत हैं नेत्र कछु इक पीत हैं पीठ सुन्दर है अगला अंग उतंग है और लम्बी पछ है और बड़ी मूंड है अत्यन्त स्निग्ध मुन्दर नख हैं गोल कठोर महा सुन्दर कुम्भस्थलहै प्रबल चरणहें माधुर्यता को लिऐ महाधीर गंभीर है गर्जना जिसकी और झरते हुवे मदकी सुगन्धता से गुंजार करे हैं भमर जिसपर दुंदुभी बाजों की ध्वनि समान गम्भीर है नाद जिसका और ताड़ वृक्ष के पत्र समान कर्म उनको हलावता मन और नेत्रोंको हरनहारी सुन्दर लीलाको करता रावणने देखा देखकर बहुत प्रसन्न भया हर्पकर रोमांच होय आए तब पुष्पक नामा विमानसे उतर गाढ़ी कमर बांधकर उसके आगे जाय शंख पूरा जिसके शब्द से दशदिशा शब्द रूप भई तव शंखका शब्द सुन चितमें क्षोभको पाय हाथी गरजा और दशमुख के सन्मुख अाय वलकर गर्बित रावणने अपने उत्तरासनका गेंद बनाय शीघही हाथीकी ओर फेंका रावण गजकेलि में प्रवीण है सो हाथी तो गेंदके सूबने को लगा और रावसा ने झटसे ऊपर उछल कर दंगों की ध्वनिसे शोभित गजके कुम्भस्थल पर हस्ततल मारा हाथी सूंडसे पकडने का उद्यम करने लगा तब रावण अति शीघ्रताकर दोऊ दांतके बीचहोय निकस गए हाथीसे अनेक क्रीड़ाकरी दश मुख हाथीकी पीठपर चढ़ बैठे हाथी विनयवान शिष्यकी न्याई खड़ा होय रहा तब आकाशसे रावणपर पुष्पोंकी वर्षा भई और देवोंने जयजयकार शब्द किये और रावणकी सेना बहुत हर्षित भई रावणने हाथी । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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