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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म 1133311 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिसकी मानों साचात् विद्याही शरीर धार कर रत्नश्रवा के तपसे वशी होकर महा कांतिकी धारणहारी आई है तब रत्नश्रवा जिनका स्वभावही दयावान है केकसी को पूछते भए कि तू कौनकी पुत्री है और कौन अर्थ अकेली यूथ से विधुरी मृगी समान महा वन में रहे हैं और तेरा क्या नाम है तब यह अत्यन्त माधुर्यता रूप गद गद वाणी से कहती भई कि राजा व्योमविंदु राणी नन्दवती तिनकी मैं केक्सी नामा पुत्री आपकी सेवा करणेको पिता ने राखी है उसी समय रत्नश्रवा को मानस स्तम्भिनी विद्या सिद्ध भई सो विद्याके प्रभावसे उसी बनमें पुष्पांतक नामा नगर बसाया और केकसी को विधि पूर्वक परणा और उसी नगर में रहकर मन वांछित भोग भोगते भए, प्रिया प्रीतम में अद्भुत प्रीति होती भई एक क्षणभी आपस में वियोग सहार न सके यह केकसी रत्न श्रवा के चित्तका बन्धन होती भई दोनों अत्यन्त रूपवान नव यौवन महा धनवान इनके धर्म के प्रभावसे किसी भी वस्तुकी कमी नहीं यह राणी पतिमता पतिकी छाया समान अनुगामिनी होती भई ॥ एकसमय यह राणी रत्न के महल में सुन्दर सेज पर पड़ी हुई थी सेजका वस्त्र वीर समूद्रकी तरङ्ग समात उज्ज्वल है और महा कोमल है अनेक सुगन्धकर मण्डित है रत्नों का उद्योग होय रहा है राणी के शरीरकी सुगन्ध से अमर गुञ्जार करें हैं अपने मनका मोहनहारा जो अपना पति उसके गुणों को चिंत बती हुई और पुत्रकी उत्पत्ति को बांछती हुई पड़ी थी रात्री के पिछले पहरे महा ध्याश्चर्य के करणहारे शुभ स्वपने देखे फिर प्रभात में अनेक बाजे बाजे शंखोंका शब्द भया मागध बन्दी जन विरद बखानते भए तब खीसेजसे उठकर प्रभात क्रिया कर महा मङ्गल रूप आभूषण पहर सखियोंकर मण्डित पतिके डिग For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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