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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन || इसको प्रथम गिरे और दोषयन्तों की गिणती में नहीं आवै उसका शरीर अद्धत परमाएवों कर रचाहे जैसी शोभाइसमें पाइये तैसी और ठौर दुर्लभहै संभाषणमें मानोंअमृतही सींचे है अर्थियोंको महादान देता मया धर्म भये काम में बुद्धिमान् धर्म का अत्यंत प्रिय निरन्तर धर्मही का यत्न करे, जन्मांतर से धर्मको लिये आया है जिसके बड़ा आभूषण यशही है और गुणही कुटुम्ब है वह धीर बीर बैरियों का भय तजकर विद्या साधने के अर्थ पुष्पक नामा बनमें गया वह बनभूत पिशाचादिक के शब्द से महा भयानक है यहतो वहां विद्या साधे है और राजा व्योमविंदुने अपनी पुत्री केकसी इसकी सेवा करणेको इसके ढिग भेजी सो सेवाकरे हाथ जोड़े रहै आज्ञाकी है अभिलाषा जिसके कैएक दिनों में रत्नश्रवाका नियम समाप्त भया, सिद्धोंको नमस्कार कर मौन छोड़ा केकसी को अकेली देखी कैसी है केकसी सरल हैं नेत्र जिसके नीलकमल समान सुन्दर और लाल कमल समान है मुख जिसका कुन्दके पुष्प समान है दन्त और पष्पोंकी माला समान हैं कोमल सुन्दर भुजा और मूङ्गा समान हैं कोमल मनोहर अघर मौलश्री के पष्पोंकी सुगन्ध समान है निश्वास जिसके चंपेकी कली समान है रङ्ग जिसका अथवा उस समान चंपक कहां और स्वर्ण कहां मानो लक्ष्मी रत्नश्रवाके रूपमें वश हुई कमलों के निवास को तज सेवा करनेको पाई है। चरणारविंद की ओर हैं नेत्र जिसके लज्जा से नमीभूत है शरीर जिसका अपने रूप वा लावण्य से कपलोकी शोभाको उलंघती हुई स्वासनकी सुगन्धतासे जिसकेमुखपर भ्रमर गुआर करें हैं । अति सुकुमार है तनु जिसका और यौबन श्रावतासा है मानों इसकी अति सुकुमारता के भय से योजनभी स्पर्शता शंके है । मानो समस्त स्त्रियोंका रूप एकत्रकर बनाई है अद्भुत है सुन्दरता For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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