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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण १०५०॥ - - हो महा प्रभाव के धारक चौथे स्वर्ग के महाऋधिधारो देव मेर संबोधिवे को आये तुम को यही योग्य श्रेसा कहकर रामने लक्षमण के शोक से रहित होय लक्षमण केशरीर को सरयू नदी के दाहे. दग्ध कीया श्रीराम आत्म भाव के ज्ञाता धर्म की मर्यादा पालने के अर्थ शत्रुघ्न भाईको कहतेभए हे शत्रघ्न में मुनि के व्रतधारसिद्ध पदको प्राप्त हुआ चाहूं हूं तू पृथिवी का राज्य कर तर शत्रुघ्न कहते भये हे देव में भोगों का लोभी नहीं जिसके राग होय सो राज्य करे में तुम्हारे संग जिनराज के व्रत घारूंगा और अभिलाषा नहीं है मनष्यों के शत्रु ये काम भोग मित्र वांघव जीतव्य इनसे कौन तृप्त भया कोई ही तृप्त न भर। इसलिये इन सबों का त्याग ही जीवको कल्याणकारी है। इतिएकसौवोन्नीसवां पर्व सम्पूर्णम् ॥ अथ राम का निर्वाण नामा छठा अधिकार ॥ अथानन्तर श्रीगमचन्द्रने शत्रुघ्न के वैराग्यरूप नचन सुन उसे निश्चयसे राज्यसे पराङ्मुख जान क्षणएक विवारअनंगलवण के पुत्रको राज्य दिया सो पिता तुल्य गुणों की खानकुलकी धुराकाघरणहारा नमस्कार करे हैं समस्तसामंत जिसको सोराज्यविषे तिष्ठा प्रजाकामतिअनुरागहै जिससे महाप्रतापीपृथ्वीविषेधाज्ञा प्रवर्तीवता भया और विभीषण लंकाका राज्य अपने पुत्र सुभूषणको देय वैराग्य को उद्यमी भया और मुग्रीवभी अपना राज्य अंगदको देयकर संसार शरीरभोगसे उदास भया ये सब रामके मित्र राम की लार भवसागर तरवेको उद्यमी भये राजा दशरथ का पुत्र राम भरतचक्रवर्तीकी न्याई राज्यका भार तजताभया कैसाहै गम विष सहित अन्नसमान जाने हैं विषय मुख जिसने और कुलटा स्त्रीसमान जानी है समस्त विभूति जिसने एक कल्यागाका कारण मुनियोंके सेवबे योग्य सुर असुरोंकर पूज्य श्री मुनिसुव्रत । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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