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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ‘पन काशको कूटे है सो कैसे कूटा जाय जो कदाचित् मिथ्या दृष्टियों के कायक्लेशादि तप होय और Hd शब्द ज्ञान भी होय तो भी मुक्ति का कारण नहीं सम्यक दर्शन बिना जो जान पना है सो ज्ञान नहीं है और जो भाचारण है सो कुचारित्र है मिथ्या दृष्टियोंका जो तप ब्रत है सो पाषाण बराबर है और ज्ञानी पुरुषों के जो तप ब्रत हैं सो वैडूर्य माणसमान हैं धर्मका मूल जीव दया है और दयाका मूल कोमल परिणाम है कोमल परिणाम दुष्टों के कैसे होय और परिग्रह धारी पुरुषों को प्रारम्भ करनेसे हिंसा अश्वय होय है इस लिये दयाके निमित्त परिग्रहका प्रारम्भ तजना चाहिये तथा सत्य बचन धर्म है परन्तु जिस सत्यसे पर जविको पीडा होय सो सत्य नहीं झूठही है और चोरी का त्याग करना परनारी तजनी परिग्रह का प्रमाण करना सन्तोष व्रत धरना इंद्रियों के विषय निवारने कषाय चीण करने देव गुरु धर्मका बिनय करना निरन्तर ज्ञानका उपयोग राखना यह सम्यक दृष्टि श्रावकों के व्रत तुझे कहे अबघरके त्यागी मुनियों के धर्म सनो सर्व प्रारंभ का परित्याग दश लक्षण धर्मका धारण सम्यक दर्शन कर युक्त महा ज्ञान वैराग्य रूप यतीका मार्ग है महा मुनि पंच महाव्रत रूप हाथीके कांधे चढ़े हैं और तीन गुप्ति रूप दृढ़वकतर पहरेहैं और पांच मुमति रूप पवादों से संयुक्त हैं नाना प्रकार तपरूप तीक्ष्ण शस्त्रों से मंडित हैं और चित्तके अानन्द करण हारे हैं ऐसे दिगम्बर मुनिराज काल रूप वैरीको जीता वह काल रूप बैरी मोह रूप मस्त हाथी पर चढ़ा है और कषाय रूप सामन्तों से मंडित है यतीका धर्म परमनिर्वाणका कारण है महामंगल रूप है उत्तम पुरुषों के सेवने योग्य है और श्रावक का धर्म तो साचात् स्वर्ग का कारण है और For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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