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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण पटकहा तब देव और विद्याधरचित्तमें चितवते भगे कि ऐसे महा पुरुष हैं वे भी गुरु आज्ञा बिना उपदेश नहीं करे हैं अहो तपका महातम्य अति अधिक है । मुनिकी आज्ञासे वह देव और विद्याधर मुनि के लार मुनिके गुरुपै गये वहां जायकर तीन प्रदक्षिणा देय नमस्कारकर गुरुके निकट बैठे महा मुनि की मूर्ति देख देव और विद्याधर श्राश्चर्यको प्राप्त भये महा मुनि की मूर्ति तपकी राशिकर उपजी जो दीप्ति उसकर देदीप्यमान है देखकर नेत्र कमल फूल गये महा विनयवान होय देव और विद्याधर धर्म का स्वरूप पूछते भये ॥ ___मुनि जिनका मन प्राणियों के हितमें सावधान है और गगादिक जो संसारके कारण हैं उनके प्रसंगसे दूरहैं जैसे मेघ गंभीर ध्वानकर गर्जे और बरसे तैसे महा गंभीर ध्वनिसे जगतके कल्याणके निमित्त परमधर्म रूप अमृत बरसात भये जब मुनि व्याख्यान करने लगे तब मेघ जैसा नाद जान लताओंके मंडपमें जो मयुर तिष्ठेथे वे नृत्य करते भये मुनि कहते भये अहो देव विद्याधरो तुम चित्त लगाय सुनो तीन भवनको आनन्द करणहारे श्रीजिनराजने जो धर्मका स्वरूप कहाहै सो मैं तुमको कहूंहूं केएक जो प्राणी नीच बुद्धिहैं विचार रहित जड चित्तहें वे अधर्मही को धर्म जान सेवतेहैं जो मार्गको न जाने सो घने कालमें भी मन बांछित स्थानकको न पहुंचे मन्दमति मिथ्या दृष्टि विषया भिलाषी जीव हिंसासे उपजा जो अधर्म उसको धर्म जान सेवेहें वे नरक निगोदके दुःख भागे हैं जे अज्ञानी खोटे दृष्टान्तोंके समूहसे भरे महापापकेपुंज मिथ्या ग्रन्थोंके अर्थ तिनकर धर्म जान प्राण घात करे हैं वे अनंत संसार भूमणकरे हैं जो अधर्म चर्चा करके वृथा बकवाद करे हैं ते दंडोंसे श्रा For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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