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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ।१०२१ पण | पवित्र पापरहित बानर के चिन्हका है देदीप्यमान रत्नमई मुकटजिसके महाप्रमोदका भरा फलरहे हैं नेत्र कमल जिसके सुन्दर है बदन जिसका पजाकर पापों के नाश करणहारे स्तोत्र तिनकर सुर असुरों के गुरु जिनेश्वर तिनके प्रतिबिम्ब की स्तुति करता भया, सो पूजा करता और स्तुति करता इन्द्रकी अप्स-1 रावोंने देखा सो अतिप्रशंसा करती भई और यह प्रवीण बीण लेयकर जिनेन्द्रचन्द्र के यश गावता भया जे शुद्धचित्त जिनेन्द्र की पूजा में अनुरागी हैं सब कल्याण तिनके समीप हे तिनको व छ ही दुर्लभ नहीं तिनका दर्शन मंगलरूप है उन जीवों ने अपना जन्म सुफल किया, जिन्होंने उत्तम मनुष्य देह पाय श्रावकके व्रत घर जिनवर में दृढ़ भक्ति धार अपने करमें कल्याण को धरा है, जन्मका फल तिन ही पाया हनुमान ने पूजा स्तुति वन्दनाकर वीणा बजाय अनेक राग गाय अद्भुत स्तुति करी यद्यपि भगबानके दर्शनसे विठुरनेका नहीं है मन जिसका तथापि चैत्यालयमें अधिक नरहे मलकोई श्राछादनलागे इसलिये जिनराज के चरण उरमें धर मन्दिर से बाहिर निकसा, विमानों में चढ़ हजारों स्त्रियों कर संयुक्त सुमेरु की प्रदक्षिणा दी, जैसे सूय्य देय तैसे श्रीशैल कहिए हनुमान सुन्दर हैं किया जिसकी सो शैल सज कहिए सुमेरु उस की प्रदक्षिणा देय समस्त चैत्यालयों में दर्शन कर भरतक्षेत्र की ओर सन्मुख भया सो मार्ग में सूर्य अस्त होय गया और संध्या भी सूर्य के पीछे विलय गई कृष्णपक्ष की रात्रिसो तारा || रूप बंधुवों कर मंडित चन्द्रमा रूप पति बिना न सोहती भई हनुमान ने सले उतर एक सुर दुन्दभी नामा पर्वत वहां सेना सहित रात्रि व्यतीत करी, कमल आदि अनेक सुगंध पुष्यों से स्पर्श पवन आई उस कर सेना के लोक सुखसे रहे जिनेश्वर देव की कथा करयो किए रात्रिको साकारा से देदीप्यमान एक For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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