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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १००२॥ पुराण त्यागीइसलिये अनागारकहिये शुद्ध भिक्षाके ग्राहकइसलिये भितूककहिये अतिकायक्लेशकरें अशुभकर्म | के त्यागी उज्ज्वल क्रियाके कर्ता तप करते खेद न माने इसलिये श्रमण कहिये आत्मस्वरूप को प्रत्यक्ष अनुभवें इसलिये मुनि कहिये रागादिक रोगोंके हरिबेका यत्न करें इसलिये यति कहिये इस भांति लोकों ने साधुकी स्तुति करी और इन दोनों भाइयोकी निन्दा करी तब यह मानरहित प्रभा रहित विलखे होय घर गये गत्रिके विषेपापी मुनिके मारिबेको अाए और वे सात्विक मुनि परिग्रही संघको तज अकेले मसान भूमि विषे अस्थ्यादिकसे दूर एकांत पवित्र भूमिमें विराजे थे कैसीहै वह भूमि जहां रीछ व्याघू आदि दुष्ट जीवोंका नाद होय रहा है और राचस भूत पिशाचों कर भराहै नागों का निवास है और अंधकाररूप भयंकर वहां शुद्ध शिला जीव जंतु रहित उसपर कायोत्सर्ग धर खड़े थे सो उन पापियों ने देखे दोनों भाई खडग काढ़ क्रोधायमान होय कहते भए जवतो तुझे लोकोंने बचाया अब कौन बचावेगा हम पंडित पृथिवी विषे श्रेष्ठ प्रत्यक्ष देवता तू निर्लज्ज हमको स्याल कहे यह शब्द कह दोनों अत्यन्त प्रचंड होंठ डसते लाल नेत्र दयारहित मुनिके मारिवे को उद्यमी भए तब बनका रक्षक यक्ष उसने देखे मनमें चितवता भया देखो ऐसे निर्दोष साधु ध्यानी कायासे निर्ममत्व तिनके मारिबे को उद्यमी भए तब यक्षने यह दोनों भाई कीले सो हल चल सके नहीं दोनों पसवारे खडे प्रभात भया सकल लोक आए देखें तो यह दोनों मुनिके पसवारे कीले खडे हैं और इनके हाथमें नांगी तलवारहै तब इनको सब लोक धिक्कार धिक्कार कहते भए यह दुराचारीपापी अन्याई ऐसा कर्म करनेको उद्यमी भए ! इन समान और पापी नहीं और यह दोनों चित्त में चितवते भये कि यह धर्म का प्रभाव है हम पापी For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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