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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥८४|| ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पअनन्दिपश्चविंशतिका । में दुःखदायी है इसलिये भब्य जीवोंको इन्द्रियों के सुखकी कदापि अभिलाषा नहीं करनी चहिये किन्तु अविनाशी सुखके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये ।। १५१ ।। शार्दूलविक्रीड़ित । आत्मा स्वं परमीक्ष्यते यदि समं तेनैव संचेष्टते तस्मा एव हितस्ततोऽपि च सुखी तस्यैव संबधभाक् । तस्मिन्नेव गतो भवत्यविरतानन्दामृताम्भोनिधौ किं चान्यत्सकलोपदेशनिवहस्यैतद्रहस्यं परम् ॥ अर्थः--जब यह आत्मा अपने स्वरूपको देखता है तो स्वयं अपने स्वरूपके साथ ही चेष्टा करता है तथा अपने स्वरूपके लियेही हितस्वरूप बनता है तथा अपने से ही सुखी होता है तथा अपना ही संबंधी होता है तथा निरंतर जो आनन्द रूप अमृत उसका समुद्रस्वरूपजो अपना स्वरूप उसमें ही लीन होता है इसप्रकार समस्त प्रवृत्तियों की आत्मा में जो दृढ़स्थिति यही समस्त उपदेशका असली तात्पर्य है। इससे अतिरिक्त और कुछ नहीं है ॥ १५२॥ )܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ आर्या। परमानन्दाब्जरसं सकलविकल्पान्यसुमनसस्त्यक्त्वा । योगी स यस्य भजते स्तिमितान्तःकरणषट्चरणः ॥ १५३ ॥ अर्थः--जिस योगीका निश्चल मनरूपी भ्रमर समस्त विकल्परूपी अन्य फूलोंको छोड़कर उत्कृष्ट आनंदके धारी शुद्धात्मा रूपी कमलके रसका सेवन करता है वही योगीश्वर पूजने योग्य है। भावार्थ:-जिसप्रकार भ्रमर संपूर्ण पुष्पोंको छोड़कर कमलके रसको अस्वादन करता है उसही प्रकार जो मुनि समस्त विकल्पोंको छोड़कर शुहात्माका आस्वादन करते हैं वे ही भव्य जीवोंके पूजने योग्य हैं १५३ ॥८४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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