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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥ ८ ॥ 1060440644446600000000000000000000000000000000000000000 पवनन्दिपश्चविंशतिका । को प्राप्तहोगा इसलिये तुझै परवस्तुको अपनी कदापि नहीं कहनी चाहिये किंतु अपनी ज्ञान दर्शनादि वस्तुओंकोही अपनाना चाहिये ॥ १४९॥ अनुए । सतताभ्यस्तभोगानामप्यसत्सुखमात्मजम् । अप्यपूर्व सदित्यास्था चित्ते यस्य स तत्ववित् ॥१५०॥ अर्थः-जिस मनुष्यके चित्तमें ऐसा विचार उत्पन्न होगयाहै कि निरंतर भोगे हुवे भी भोगोंसे पैदाहुवा सुख अशुभ है तथा केवल आत्मासे उत्पन्न हुवासुख अपूर्व तथा शुभ है वही पुरुष भलेप्रकार तत्वका ज्ञाता है ऐसा समझना चाहिये किंतु उससे भिन्न विपरीत श्रद्धानी कदापि तत्व ज्ञाता नहीं होसक्ता ॥ १५० ॥ पृथ्वी । प्रतिक्षणमयं जनो नियतमुग्रदुःखातुरः क्षुदादिभिरभिश्रयंस्तदुपशान्तयेऽन्नादिकम् । तदेव मनुते सुखं भ्रमवशाद्यदेवासुखं समुल्लसति कज्छाकारुजि यथा शिखिवेदनम् ॥१५१॥ अर्थः-ग्रन्थकार कहते हैं-जिस प्रकार खाज का रोगी मनुष्य अग्नि से खाज के सेकने में सुख मानता है परन्तु अग्नि से सेकना केवल दुःख का ही देने वाला है उस ही प्रकार यह संसारी जीव जब क्षुधा तृषा आदि व्याधियोंसे पैदा हवे दुःखों से अत्यन्त पीडित होता है तथा उसकी शांति के लिये अन्न जल का आश्रयण करता है उस समय यद्यपि वह अन्न जल आदि पदार्थ दुःख खरूप है तो भी भ्रम से उनको सुख मानता है। भावार्थ:-जिस प्रकार अग्निसे सेकते समय खाज में सुख मालूम होता है किन्तु अंत में अत्यंत दुःख ही भोगना पड़ता है उस ही प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न हुवा सुख यद्यपि थोड़े समय तक सुख है परन्तु अंत For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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