SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥७५॥ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀ पचनन्दिपञ्चविंशतिका । आदिक नहीं है तथा वह देहके भीतर है इसलिये स्पष्टरीतिसे यह देखने में नहीं आता तो भी मैं करता हूं तथा मैं जानता हूं इन विकल्पोंसे आत्माको हरएक जान सक्ता है इसलिये इसका अभाव नहीं। अतः भन्यजीवों को चाहिये कि इसका भलीभांति अनुभव करै तथा वाह्यपदार्थोंसे मोहको हटाव ॥ १३६ ॥ व्यापी नैव शरीर एव यदसावात्मा स्फुरत्यन्वहं भूतो नान्वयतो न भूतजनितो ज्ञानी प्रकृत्यायतः। नित्ये वा क्षणिकेऽथवा न कथमप्यर्थक्रिया युज्यते तत्रैकत्वमपि प्रमाणदृढ़या भेदप्रतीत्याहतम् ।। अर्थ:-यहआत्मा निरंतर शरीरमेंही रहाहुवा मालूम पड़ता है इसलिये तो व्यापक नहीं और स्वभावसे ही यह ज्ञानी है इसलिये यह पृथ्वी अप् तेज आदि पांचपदार्थोंसे भी पैदा हुवा नहीं मालूम होता तथा यह सर्वथा नित्यभी नहीं क्योंकि नित्यमें किसीप्रकारका परिणाम नहीं होसक्ता और आत्माके तो कोधादि परिणाम भलीभांति अनुभवमें आते हैं तथा यह आत्मा सर्वथा क्षणिक भी नहीं होसक्ता क्योंकि प्रथमक्षणमें उत्पन्न होकर यदि यह द्वितीय क्षणमें नष्ट होजावेगा तो किसी प्रकारकी क्रिया इसमें नहीं होसक्ती तथा आत्मा एक स्वरूप है यह भी नहीं कहा जासक्ता क्योंकि कभी क्रोधी कभी लोभी इत्यादि नानापर्याय आत्माकी मालूम होती हैं। भावार्थ:-नैयायिकादिका सिद्धांत है कि आत्मा व्यापक है अर्थात् ऐसा कोईभी आकाशका प्रदेश नहीं है जहां पर यह आत्मा न हो-किंतु आचार्य कहते हैं कि सिवाय शरीरके यह आत्मा और कहीं पर व्यापक नहीं यदि शरीरसे जुदे स्थानमें होता तो मालूम पड़ता इसलिये यह शरीरके समान परिणाम वालाही है तथा नास्तिक इसको पृथ्वी आदिसेही उत्पन्न हुवा मानते हैं वह भी ठीक नहीं क्योंकि यह ज्ञानी है और पृथ्वी आदि जड़ है इसलिये जड़से कदापि चेतनकी उत्पत्ति नहीं होसक्ती और सांख्य आदिक आत्माको सर्वथा कूटस्थही मानते हैं सो भी ठीक नहीं क्योंकि सर्वथा नित्यमें किसी प्रकारका परिणाम नहीं हो सक्ता For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy