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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ ४॥ 1000००००००००००००००००००००.. www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका । किंचान्यस्य कुतोमतिःपरमियंभ्रान्ताऽशुभात्कर्मणोनीत्वानाशमुपायतस्तदखिलं जानाति ज्ञाताप्रभुः१३५ अर्थः-आत्माका नहींजाननेवाला यदि कोईमनुष्य किसीको पूछै कि आत्मा कहाँ रहता है ? कैसा है ? कौन आत्माको भलीभांति जानता है तो उसको यही कहना चाहिये कि जिसके मनमें कैसा है कहां है इत्यादि विकल्प उठ रहे हैं वही आत्मा है उससे अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है, क्योंकि जड़में कैसा है कहा है इत्यादि कदापि बुद्धि नहीं होसक्ती परन्तु अशुभकर्मसे जीवोंकी बुद्धि भ्रांत होरही है इसलिये जब यह आत्मा उनकर्मीको मूलसे नाशकर देता है उससमय आपसे आपही यह अपने स्वरूपको तथा दूसरे पदार्थोको जानने || लगजाता है इसलिये आत्माके बास्तविकस्वरूपको पहिचाननेके अभिलाषियोंको तप आदिके द्वारा काँके नाश करनेका अवश्य प्रयत्न करना चाहिये ।। १३५ ॥ आत्मा मूर्तिविवर्जितोऽपि वपुषि स्थित्वापि दुर्लक्ष्यतां प्राप्तोपि स्फुरति स्फुटं यदहमित्युल्लेखतःसंततम् । तत्किं मुह्यत शासनादपि गुरोर्धान्तिः समुत्सृज्यतामन्तः पश्यत निश्चलेन मनसा तं तन्मुखाक्षबजाः अथेः-यद्यपि इसआत्माकी कोई मूर्ति नहीं है और यह शरीरके भीतरही रहता है इसलिये इसको प्रत्यक्ष देखना अत्यंत कठिन है तो भी (अहंजानामि अहंकरोमि) मैं जानता हूं तथा मैं करता हूं इत्यादि प्रतीतियोंसे यह स्पष्ट रीति से जाना जाता है तथा गुरु आदिके उपदेश से भी भलीभांति इसका ज्ञान होता है अतः ग्रन्थकार कहते हैं हे भव्यजीवो मनको तथा इंद्रियों को निश्चलकर अपने अभ्यंतर में इस आत्मा का अनुभव करो क्यों व्यर्थ बाह्यपदार्थों में मोह करते हो । भावार्थ-अनेकमतवाले इसबातको स्वीकार करते हैं कि आत्मा कोई पदार्थ नहीं क्योंकि यदि होता तो उसका प्रत्यक्ष भी होता उनको आचार्य समझाते हैं कि यद्यपि आत्मामें कोईप्रकारका स्पर्श रस 066600......। REL222100000000000००००००००००००००००००००००००००००००००००० ॥ ४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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