SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥६९॥ www.kobatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । अत्माही धर्महै इसवातको ग्रंथकार वर्णन करते हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मन्दाक्रान्ता । शान्ते कर्मण्युचितसकलक्षेत्रकालादिहेतौ लब्धे स्वास्थ्यं कथमपि लसद्योगमुद्राविशेषम् । आत्माधर्मों यदयमसुखस्फीतसंसारगर्ता दुद्धृत्य स्वं सुखमयपदे धारयत्यात्मनैव ॥ १२३ ॥ अर्थः- समस्त कर्मोंके उपशम होनेपर तथा द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप योग्य सामिग्रीके मिलने पर जब यह आत्मा ध्यान में लीनहोकर अपने स्वरूपका चितवन करता है उससमय नानादुःखोंके देनेवाले संसाररूपी गढेसे छूटकर अपने ही अपनेको उत्तमसुखमें पहुंचाता है इसलिये आत्मासे अतिरिक्त कोई धर्म नहीं है ॥ भावार्थः - संसारके दुःखोंसे छुटाकर जो उत्तम सुखमें लेजाता है उसहीका नाम धर्म है आत्माभी अपनेसे अपनेको उत्तम सुखमें लेजाता है इसलिये आत्माही परमधर्म है अतः भव्यों को चाहिये कि वे अपनी आत्मा काही चितवन करें ।। १३३ ॥ आत्मा के वास्तविकस्वरूपका वर्णन | शार्दूल विक्रीड़ित । नो शून्यो न जड़ो न भूतजनितो नो कर्तृभावं गतो नैको न क्षणिको न विश्वविततो नित्यो नचैकान्ततः । आत्माकायमितिश्विदेकनिलयः कर्ता च भोक्ता स्वयं संयुक्तः स्थिरताविनाशजननैः प्रत्येकमेकक्षणे १३४ || अर्थः- एकांतसेन आत्मा शून्य है न जड़ है न पंचभूतसे उत्पन्न हुआ है न कर्ता है न एक है न क्षणिक है न लोकव्यपी है न नित्य है किन्तु अपने शरीर के परिमाण है तथा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान आदि गुणोंका आधार है और अपने कर्मोका कर्ता है और अपनेही कमका भोक्ता है तथा एकहीक्षण में सदाकाल उत्पाद For Private And Personal ................................................... ॥६९॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy