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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥६७॥ www.kobatirth.org पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir कदापि आत्मारूपी प्रभूको मोक्षस्थान में नहीं लेजासक्ता | भावार्थः— जिसप्रकार किसी रथमें यद्यपि अच्छे २ घोड़े मौजूद हैं किन्तु उन घोड़ोंका चलानेवाला सारथी नहीं है तो कदापि वहरथ अपने में बैठनेवाले पुरुषको यथेष्ट स्थानपर नहीं पहुंचासक्ता उसीप्रकार नानाप्रकारके दुखों को सहनकर पंचाग्नि आदि तप भी किये परंतु वस्तुके यथार्थस्वरूपको न जाना तो कदापि उत्तमसुख की प्राप्ति नहीं होसक्ती इसलिये भव्योंको चाहिये कि वे सम्यग्ज्ञान पूर्वक तपको करे तभी उनको उत्तम सुखकी प्राप्ति होसक्ती है ॥ १३० ॥ स्रग्धरा। कर्माब्धौ तद्विचित्रोदयलहरिभरव्याकुले व्यापदुग्रभ्राम्यन्नकादिकीर्णे मृतिजननलसद्वाड़वावर्तगर्ते । मुक्तःशक्त्या हतांगः प्रतिगति स पुमान् मज्जनोन्मज्जनाभ्यामप्राप्यज्ञानपोतं तदनुगतिजड़ः पारगामी कथं स्यात् अर्थः-- ग्रन्थकार कहते हैं कि यहकर्म एकप्रकारका बड़ाभारी समुद्र है क्योंकि जिमप्रकार समुद्र अनेक लहरियोंकर व्याप्त है उसही प्रकार यहकर्मरूपीसमुद्र भी अनेक उदयरूप लहरियोंकर व्याप्त है तथा जिसप्रकार समुद्र में नानाप्रकारके भयंकर मगर मच्छादि हुवा करते हैं उसही प्रकार इसकर्मरूपी समुद्र में भी इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग आदि नानाप्रकारकी आपत्तिरूप मगर मच्छादि विद्यमान है तथा जिसप्रकार समुद्र में बड़वानल भमर गड्ढे हुवा करते हैं उसही प्रकार इसकर्मरूपीसमुद्रमेंभी नानाप्रकारके जन्म मरण आदि बड़वानल भमर है इसलिये ऐसेभयंकर समुद्रमें शक्तिहीन तथा अनादिकालसे सर्वत्र गोता खाता हुवा मनुष्य जबतक ज्ञानरूपी अनुकूल जहाजको न प्राप्तकरैगा तबतक कदापि पार नहीं होसक्ता । भावार्थ:- जिसप्रकार कोई शक्तिहीनमनुष्य मगर मच्छआदि से भयंकर समुद्र में पड़जावे तो वह नाना प्रकार के For Private And Personal ॥६७॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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