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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥६६॥ 0000२९ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पचनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थः-संसारमें ये तीनोंरत्न ही सारभूत पदार्थ हैं और इनहीमें प्रयत्न करनेसे उत्तमसुख की प्राप्ति हो सक्ती है इसलिये भव्यजीवोंको रत्नत्रयका आराधन अवश्य करना चाहिये ॥१२८॥ आर्या । तध्यायत तात्पर्याज्ज्योतिः सचिन्मयं विना यस्मात् । सदपि न सत्सति यस्मिन्निश्चितमाभासते विश्वम् ॥१२९।। अर्थ:-जिस श्रेष्ट तथा ज्ञानस्वरूपचैतन्यके बिना समस्तपदार्थ मौजूद भी नहीं मौजूद के समान हैं और जिसचैतन्यके होतेसन्ते समस्तपदार्थोंका प्रकटरीतिसे प्रतिभास होता है ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्मारूपी ज्योतिकी भव्यजीवोंको अवश्य आराधना तथा उपासना करनी चाहिये । भावार्थ:--यद्यपि संसारमें अनेकपदार्थ हैं परंतु उनसबमें ज्ञानगुणका धारी आत्माही है तथा उस आत्माके विना समस्त जगत शून्य है और उसआत्माके होतेसते समस्त पदार्थोका भलेप्रकारसे ज्ञान होता है इसलिये भव्यजीवोंको ऐसेसारभूतआत्माका अवश्यही ध्यान करना चाहिये ॥१२९॥ शार्दूल विक्रीड़ित । अज्ञो यद्भवकोटिभिः क्षपयति स्वं कर्म तस्माद्बहु स्वीकुर्वन् कृतसंवरःस्थिरमना ज्ञानी तु तत्तत्क्षणात्। तीक्ष्णक्लेशहयाश्रितोऽपि हि पदं नेष्टं तपःस्यन्दनो नेयं तन्नयति प्रभुं स्फुटतरज्ञानैकसूतोज्झितः ॥१३०॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि अज्ञानीजीव कठोर तप आदिके द्वारा जितनेकर्मोको करोड़ वर्षमें क्षयकरता है उससे अधिक भी कर्मोको, स्थिरमन होकर संवरका धारी ज्ञानीजीव क्षणमात्रमें क्षय करदेता है सो ठीक ही है क्योंकि जिसतपरूपीरथमें तीक्षणक्लेशरूपी घोड़ा लगेहुवे हैं किंतु ज्ञानरूपीसारथी नहीं हैं तो वह तपरूपीरथ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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