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________________ www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ ४॥ .00000000000000०००००००००००००००००००००००००००00000000000000 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-और भी आचार्य कहते हैं कि जो समस्त पदार्थोंको अच्छी तरह जाननेवाला है तथा वीतराग है और ज्ञानावरणादि चार घातिया कौसे रहित है उसहीका वाक्य प्रमाण है किन्तु उससे विपरीत जो अल्पज्ञानी रागी आदि हैं उनका वचन असत्यहोनेसे प्रमाण नहीं है ऐसा मनमें ठानकर हे पंडितो केवल ज्ञानकी प्राप्तिकोलिये मुक्ति के देनेवाले उसअन्तका ही आश्रयणकरो क्यों व्यर्थ अंधेके समान जहांतहां खोटेमार्गमें गिरते फिरते हो ॥ १२४ ॥ वसन्ततिलंका। यः कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि सन्दिा तत्वमसमञ्जसमात्मबुध्या।। खे पत्रिणां विचरतां सुदृशक्षितानां संख्यां प्रति प्रविदधाति सवादमंधः॥ १२५॥ अर्थः-जो मूढ़, सर्वज्ञके बचनमें भी सन्देह कर अपनी बुद्धिकी गढ़तसे अपरमार्थभूततत्वोंकी कल्पना करता है वह वैसाही काम करता है कि जिसप्रकार अंधा मनुष्य आकाशमें जाते हुवे पक्षियों की गिनतीमें अच्छे नेत्रवाले पुरुषके साथ विवाद करता है। भावार्थ:-जिसको यहभी पता नहीं है कि पक्षी कहां उड़रहे हैं कहां नहीं, वह कैसे सूझतेपुरुषके साथ पक्षियोंकी गिनती में विवाद करसक्ता है उसहीप्रकार जिसको अंशमात्रभी विशेषज्ञान नहीं वह सिवाय सर्वज्ञकी कृपासे कैसे वस्तुके यथार्थस्वरूपको जानसक्ता है इसलिये भव्यजीवोंको सर्वज्ञके वचनपर ही विश्वास करना चाहिये अल्पज्ञानियोंके वचनपर कदापि नहीं ॥ १२५ ।। इन्द्रवज्रा। उक्तं जिनै दशभेदमङ्गं श्रुतं ततो बाह्यमनन्तभेदम् । तस्मिन्नुपादेयतया चिदात्मा ततः परं हेयतयाऽभ्यधायि ॥१२६॥ ०००००००००००००००००००.00000000000000000000000000000000000 ॥६४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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