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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥६३॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-हम कहांजावें क्याकरें कैसे सुख हो किसरीति से लक्ष्मी मिलें किस राजाकी सेवा टहल करें इत्यादि नाना प्रकारके विकल्पोंके समूह संसारमें प्राणियोंके उत्पन्न होते रहते हैं तथा भलेप्रकार वस्तुके स्वरूपको जाननेवाले भी मनुष्यों के मनको जड़ वनादेते हैं यह प्रत्यक्ष गोचर है इसलिये ग्रन्थकार कहते हैं कि मोहका चरित्र वड़ाआश्चर्यकारी है। भावार्थः-मोहके उदयसे मनुष्योंको नाना प्रकारके नहींकरनेयोग्य भी काम करने पड़ते हैं इसलिये सबसे पहले मोहसे मोह अवश्य तोड़ना चाहिये ॥१२२ ॥ विहाय व्यामोहं धनसदनतन्वादिविषये कुरुध्वं तत्तूर्णं किमपि निजकार्य वत बुधाः । न येनेदं जन्म प्रभवति सुनृत्वादिघटना पुनः स्यान्नस्यादा किमपरवचोऽडम्बरशतैः ॥१२३॥ अर्थ:-आचार्य उपदेश देते हैं कि अरे वुद्धिमानों विशेष कहांतक कहैं शीघ्र स्त्री पुत्र धन घर आदि पदार्थोसे मोह छोड़कर ऐसा कोई काम करो जिससे तुमको फिर जन्म न धारण करना पड़े क्योंकि नहीं मालूम फिर उत्तमकुल जिनधर्मका शरण, निर्ग्रथगुरुका उपदेश, आदि मिले या नहीं मिले। भावार्थ:-जिसप्रकार चौराहेपर चिन्तामणिरत्नकी प्राप्ति दुर्लभ है उसहीप्रकार मनुष्यजन्म तथा जिनधर्मका शरण आदि मिलना दुर्लभ है इसलिये ऐसीअवस्थाको पाकर ऐसा काम करना चाहिये जिससे तुमको इसपंच परावर्तनरूप संसारमें परिभ्रमण न करना पड़े नहीं तो हाथ मलते रहजाओगे कुछ भी नहींमिलेगा ॥१२३॥ स्रग्धरा। वाचस्तस्यप्रमाणा यइह जिनपतिः सर्वविदीतरागो रागद्वेषादिदोषैरुपहतमनसो नेतरस्यानृतत्वात् । एतनिश्चित्य चित्ते श्रयत बत वुधा विश्वतत्वोपलब्ध्यै मुक्तेर्मूलं तमेकं भ्रमति किमु वहुवंधवदुष्पथेषु॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥६ ॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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