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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥५३॥ .000000000000000000000000000...............00000000000000 पचनन्दिपश्चविंशतिका । संसारमें बिरले ही हैं तथा जो स्वतः अपने हितकेलिये तप करनेवाले हैं तथा दूसरे तपस्वियोंकेलियें जो शास्त्रादिका दान करते हैं और उनके सहायी भी हैं ऐसे योगीश्वर तो संसारके बीच में अत्यन्त ही दुर्लभ है अर्थात् बड़ी कठिनाईसे मिलते हैं ॥१०॥ परंमत्वा सर्व परिहृतमशेषं श्रुतविदा वपुः पुस्ताद्यास्ते तदपि निकटं चेदिति मतिः । ममत्वाभावे तत्सदपि न सदन्यत्र घटते जिनेन्द्राज्ञाभंगो भवति च हठात् कल्मषमृषेः ॥१०३॥ अर्थः-समस्तशास्त्रके आननेवाले वीतरागने अपनी आत्मासे समस्तवस्तुको भिन्न जानकर सबका त्याग करदिया है यदि कहोगे कि सबको छोड़ते समय शरीर पुस्तकार्दिका क्यों नहीं त्याग किया ? तो उसका समाधान यही है कि उनकी शरीरादिमें भी किसीप्रकारकी ममता नहीं रही है इसलिये वे मौजूद भी नहींमौजूदकी तरह ही है अर्थात् मुनियोंका शरीरादि “बिना आयुकभके नाशहुवे झूठ नहीं सक्ता यदि वे बीचमें ही छोड़ देवे तो उनको प्राणघातकरनेके कारण हिंसाका भागी होना पड़ेगा इसलिये शरीरादि तो रहता है किन्तु वे शारीरादिमें किसीप्रकारका ममत्व नहीं रजते परन्तु यदि वे शरीरादिमें किसीप्रकारका ममख कर तो उनको जिनेन्द्रकी आज्ञाभंगरूप महानदोषका भामी होना पड़े अर्थात् जबतक ममल रहेगा तबतक वे मुनि ही नहीं कहलाये जा सक्ते ॥१०॥ आगे ब्रह्मचर्यधर्मका वर्णन करते हैं। स्रग्धरा यत्संगाधारमेतच्चलति लघु च यत्तीक्ष्णदुःखौघधारं मृत्पिण्डीभूतभूतं कृतवहुविकृतिभ्रान्तिसंसारचक्रम् । ता नित्यं यन्मुमुक्षुर्यतिरमलमतिः शान्तमोहः प्रपश्येजामीः पुत्रीः सवित्रीरिवहरिणदृशस्तत्परं ब्रह्मचर्यम्। ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥५३॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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