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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥५२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । ही प्रकार तपके करनेसे बहुत थोड़े दुःखका तुझे अनुभव करना पड़ता है किन्तु जिससमय मिथ्यात्वके उदयसे तू नरक जावेगा उससमय तुझको नानाप्रकारके छेदन भेदन आदि असह्यदुःखों का सामना करना पड़ेगा तो भी तू न जाने तपसे क्यों भयभीत होता है ? तथा तेरी तपके करनेमें क्या हानि है ? ॥१००॥ त्यागधर्मका वर्णन । शार्दूलविक्रीडित । व्याख्या या क्रियते श्रुतस्य यतये यद्दीयते पुस्तकं स्थानं संयमसाधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा । स व्यागो वपुरादिनिर्ममतया नो किंचनास्ते यतेराकिंचन्यमिदं च संसृतिहरो धर्मः सतां सम्मतः॥१०१॥ अर्थः- शास्त्रों का भलीभांति व्याख्यानकरना तथा मुनियोंको पुस्तकें तथा स्थान और संयम के साधन पीछी कमण्डलु आदिका देना सदाचारियों का उत्कृष्ट त्याग धर्म है और मेरा कुछ भी नहीं है ऐसा विचार कर अत्यन्त निकटशरीरमें भी ममता छोड़ देना आकिंचन्यनामक धर्म है तथा वह यतिके होता है और वह समस्त संसारका नाश करनेवाला है तथा समस्त श्रेष्ट पुरुषोंके द्वारा वह आदरणीय है ॥ १०१ ॥ और भी अकिंचन्यधर्मका स्वरूप वर्णन किया जाता है । शिखरिणी । विमोहा मोक्षाय स्वहितनिरताश्चारुचरिता गृहादि त्यक्त्वा ये विदघति तपस्तेऽपि विरलाः । तपस्यतोऽन्यस्मिन्नपि यमिनि शास्त्रादि ददतो सहायाः स्युर्ये ते जगति यमिनो दुर्लभतराः ॥ १०२ ॥ अर्थः- जिनका सर्वथा मोह गलिगया है तथा अपने आत्मा के हितमें ही निरन्तर लगे रहते हैं और सुन्दर चारित्र के धारण करनेवाले हैं तथा घर स्त्री पुत्रादिको छोड़कर मोक्षकेलिये तप करते हैं मुनि For Private And Personal ॥५२॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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