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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥५ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । होनाही अत्यन्त कठिन है किन्तु किसीकारणसे मनुष्यजन्म प्राप्त भी होजावे तो उत्तमब्राह्मणादिजाति मिलना अति दुःसाध्य है यदि किसी प्रवलदैवयोगसे उत्तमजातिभी मिलजावे तो अहन्तभगवानके बचनोंका सुनना बड़ा दुर्लभ है यदि उनके सुननका भी सौभाग्य प्राप्त होजावे तो संसारमें अधिक जीवन नहीं मिलता यदि अधिकजीवन भी मिले तो सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति होनी अतिकठिन है यदि किसी पुण्यके उदयसे अखण्ड तथा निर्मलसम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति भी होजावे तो उससंयमधर्मके विना वे स्वर्ग तथा मोक्षरूपी फलके देनेवाले नहीं होसक्ते इसलिये सबकी अपेक्षा संयम अतिप्रशंसनीय है अतः ऐसे संयमकी अवश्य संयमियोंको रक्षा करनी चाहिये ॥ ९७ ॥ आचार्य तपधर्मका वर्णन करते हैं । आर्या । कर्ममलविलयहेतोर्बोधदृशा तप्यते तपः प्रोक्तम् तद्धेधा द्वादशधा जन्माम्बुधियानपात्रीमदम् ॥१८॥ अर्थः-सम्यग्ज्ञानरूपीदृष्टि से भलेप्रकार वस्तुके स्वरूपको जानकर ज्ञानावरणादिकर्ममलके नाशकी बुद्धिसे जो तप किया जाता है वही तप कहा गया है तथा वह तप मूलमें वाह्य अभ्यन्तर भेदसे दो प्रकार है और अनशन १ अवमौदर्य २ वृत्तिपरिसंख्यान ३ रसपरित्याग ४ विविक्तशय्यासन ५ कायक्लेश ६ इसरीतिसे छै प्रकारका वाह्य तथा प्रायश्चित्त १ विनय २ वैयावृत्य ३ स्वाध्याय ४ ग्युत्सर्ग ५ ध्यान ६ इसप्रकार छैप्रकारका अभ्यन्तर इसरीतिसे उसतपके वारह भी भेद हैं तथा वह तप संसाररूपीसमुद्रसे पार करनेकेलिये जहाजके समान है अर्थात् मोक्षका देनेवाला है ॥९८॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥५०॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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