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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥४९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका । शुद्धिको प्राप्त नहीं करसक्ता इसलिये मनुष्यको सबसे प्रथम अपने अंतःकरणको शुद्ध करना चाहिये क्योंकि जबतक अंतःकरण शुद्ध न होगा तबतक सर्व वाद्यक्रिया व्यर्थ हैं ॥१५॥ अब आचार्यवर संयमधर्मका वर्णन करते हैं। आयो। जन्तुकृपार्दितमनसः समितिषु साधोः प्रवर्तमानस्य प्राणेंद्रियपरिहारः सयममाहुर्महामुनयः ॥१६॥ अर्थः-जिसका चित्त जीवोंकी दयासे भीगाहुवा है तथा जो ईर्या भाषा एषणा आदि पांच समितियोंका पालन करनेवाला है ऐसे साधुके जो षटकायके जीवोंकी हिंसाका तथा इन्द्रियों के विषयोंका त्याग है उसीको गणधरादिदेव संयमधर्म कहते हैं। भावार्थ-जबतक दयासे चित्त भींगा न रहेगा तथा ईर्या भाषा एषणा आदि समितियोंका पालन न किया जावेगा और समस्त जीवोंकी हिंसाका तथा इन्द्रियोंके विषयाका त्याग न किया जावेगा तबतक कदापि संयम धर्म नहीं पल मक्ता इसलिये संयमियोंको उपर्युक्तबातोंपर विशेषतया ध्यान देना चाहिये ॥१६॥ शाल विक्रीदिव। मानुष्यं किल दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्यादयस्तेष्वेवाप्तवचःश्रुतिःस्थितिरतस्तस्याश्च इग्बोधने । प्रासे ते अपि निर्मले अपि परं स्यातांन येनोज्झिते स्वर्मोक्षकफलप्रदे स च कथं न श्लाघ्यते संयमः॥९७॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि प्रथम तो इसससाररूपीगहनवनमें भ्रमण करते हुवे प्राणियोंको मनुष्य अतिनिमैसे-इत्यपि पाठान्तरम् । ............०००००००००००००००००००००.00000000000000000000 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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