SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥ पद्मनंदी आचार्यके कुछ जीवन विषयका उल्लेख ॥ पाठकगण | कोई समय इस जैनधर्मकेलिये इसभारतवर्ष में ऐसा बीत चुका है कि जिससमय इस पवित्र जैनधर्मका नकारा चारो ओर इस भूमंडल पर निर्भयरीतिस्रे बजता था । अनंते केवळी इस भूमंडलपर विहारकर अपने ज्ञानरूपीसूर्य से समस्त संसार के अज्ञानांधकार को दूरकरते थे । जीवोंको उत्तममार्गका उपदेश देकर मोक्षकी ओर झुकाते थे । अनंते निथ मुनिगण भांति २ के उग्रतपों को करते थे, उग्रध्यानके वलसे अपने आत्मस्वरूपके रसको भलीभांति आस्वादन करते थे, और जीवोंको भी आस्वादन कराने की रातदिन कोशिश किया करते थे। उन निर्मथ मुनीश्वरों में कोई तो आचार्यपदके और कोई उपाध्यायपदके धारी होते थे। शिक्षा दीक्षा देना इत्यादि आचार्योंका मुख्य कर्म था उसको वे आचार्य भटी भांति करते थे। उन्हीं आचार्योंकी कृपासे एवं शिक्षा से अनगिनते जीव निर्मथ अवस्था प्राप्त करते थे और मोक्ष की प्राप्ति में सदा प्रयत्नशील रहा करते थे । इसी भांति अनेक उपाध्यायगण भी इस पृथ्वी मंडळ ऊपर विहार करते थे। अपने पठन पाठन कर्ममें ये पवित्र आत्मा के स्वरूप के जाननेवाले उपाध्याय सदा निष्णात रहते थे । जिस दिशा की ओर देखो उसदिशामें यहीं देखने में आता था कि उपाध्यायपदके धारी मुनीश्वर हजारों शिष्योंको वास्तविक स्वरूपका अध्यापन करारहे हैं। कहीं पर किसी विषयका और कहीं पर किसी विषयका वर्णन किया जा रहा है। पंचम कालके प्रभावसे वह प्राचीन ऋषि समाज बहुकालसे दृष्टि गोचर नहीं होने लगा तब जैनधर्मका पठन पाठन बहुत कम होने लगा। यहां तक कि २५ वर्ष पहले की बात है कि संस्कृत शास्त्रोंक पाठी कहीं कोई दृष्टिगोचर होते थे। परंतु हर्ष है कि १०-१५ वर्ष से फिर इस पवित्र धर्मका पठन पाठन इसतरह यह रहा है कि जिससे विधर्मी लोगों की भी श्रद्धा जैनधर्म पर होने लगी है । पाठक ! यह कृपा और किसीकी मत समझिये, सिर्फ यह सब कृपा है तो जैनमथोंकी ही है क्योंकि जबसे लोगोंको जनमथोंके देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। जबसे उन्होंने जैनधर्मके स्वरूपको जाना है तबही से यह बात हुई है । जैनधर्म के प्रेमियो ! यद्यपि आप के कुछ प्राचीन प्रन्थों का अब उद्धार हुआ है तथापि अब भी आपके सैकडों ग्रंथ भंडारोंमें कीडों के भोजन बन रहे हैं दयाकर उनके उद्धारका प्रयत्न कीजिये । नहीं तो आचार्यका प्रयत्न व्यर्थ जायगा और आपलोगोको कृतघ्नी बनना पड़ेगा क्योंकि लोग बराबर जैनधर्मके देखनेको, उसके ग्रंथोंके अभ्यास करनेकी अभिलाषा प्रगट कररहे हैं। ग्रंथोंको मंगा रहे हैं किंतु खेद है जैन ग्रंथ उनको मांगनेपर भी नहीं मिलते हैं। मिले कहां ? सिर्फ एक २ दो २ प्रतियां हैं उनको वे रक्खें या मांगनेवालोको देवें क्योंकि शुद्ध लेखक मिळते नहीं बड़ी कठिनाई सी लटक गई है । For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy