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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३९॥ 464644444446 00000000000000००००००००००००००००००००००० पभनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-जिसको मार्गमालूम है ऐसामनुष्य यदि धीरे २ चले तो भी जिसप्रकार अभिमत स्थानपर पहुंच जाता है किन्तु जिसको मार्ग कुछ भी नहीं मालूम है वह चाहे कितनी भी जल्दी चले तोभी वह अपने अभिमत स्थानपर नहीं पहुंचसक्ता उसी प्रकार जो मुनि तप आदिकातो बहुत थोड़ा करनेवाला है किन्तु सम्यग्दशन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रकाधारी है वह शीघही मुक्तिको प्राप्त हो जाता है किन्तु जो तपआदिका तो बहत करनेवाला है परन्तु सम्यग्दर्शन आदिरत्नत्रयका धारी नहीं है, वह कितनाभी प्रयत्न करै तौभी मोक्षको नहीं पासक्ता इसलिये मोक्षाभिलाषियों को सम्यग्दर्शनादिकी सबसे अधिक महिमा समझनी चाहिये ॥७॥ मालिनी। वनाशखिनिमृतोऽन्धः सञ्चरन्धाढ़मंघिड़ितयविकलमूतिर्वीक्षमाणोऽपि खञ्जः । अपि सनयनपादोऽश्रद्दधानश्च तस्मादृगवगमचरित्रैः संयुतेरेव सिद्धिः॥७५॥ अर्थः-बनमें अग्नि लगनेपर उसबनमें रहने वाला अंधा तो देख न सका इसलिये दौड़ता हुआ भी मरगया तथा दोनों चरणोंका लूला लगीहुई अग्निको देखता हुवा दौड न सकनेके कारण तत्काल भस्म होगया और आंख तथा पैर सहितभी आलसी इसलिये मरगया कि उसको अग्नि लगनेका श्रद्वानही नहीं हुवा इसलिए आचार्य उपदेश देते हैं कि केवल सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान और केवल सम्यकूचरित्र मोक्षके लिये कारण नहीं है किन्तु तीनों मिलेहुबेही है ॥५॥ भावार्थ-यद्यपि अंधेको अमिका श्रहान तथा आचरणथा तो भी देखना सपशान न होने के कारण वह मरगया तथा पंगुको ज्ञान श्रद्धान होनेपर दौड़नारूप आचरण नहीं था इसलिये भस्म हो गया । आलसीको ज्ञान भी था और आचरण भी था किन्तु श्रदान नहीं था इसलिये वह जलकर मरगया यदि इनतीनोंके पास 000000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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