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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥३८॥ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । अब आचार्य रत्नत्रयधर्मका वर्णन करते हैं। शार्दूल विकीदित । तत्वार्थाप्सतपोभृतां यतिवराः श्रद्धानमाहुद्देशं ज्ञानं जानदनूनमप्रतिहतं स्वार्थावसन्देहवत् । चारित्रं विरतिः प्रमादविलसत्कर्मास्रवाद्योगिनामेतन्मुक्तिपथस्त्रयं च परमोधर्मो भवच्छेदकः ॥७२॥ अर्थः-गणधरादिदेव जीवादिपदार्थ तथा आप्त और गुरुओंपर श्रद्धान रखनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं तथा जिसमें किसी प्रकारकी वाधा नहीं है तथा जो संशय रहित तथा पूर्ण है एसे ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं तथा प्रमादसहित कर्मों के आगमनके रुकजानेको सम्यक् चारित्र कहते हैं तथा सम्यग्दर्शन सम्मयग्ज्ञान सम्यक्चारित्रही मुक्तिका मार्ग हैं तथा संसारको नाशकरनेवाला परम धर्म है ॥७२॥ माकिनी। हृदयभुवि हगेकं वीजमुप्तत्वशङ्काप्रभृतिगुणसदम्भःसारिणीसिक्तमुच्चैः । भवदवगमशाखश्चारुचारित्रपुष्पस्तरुरमृतफलेन प्रीणयत्याशु भव्यम् ॥७३॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि अतःकरणरूपी पृथ्वीमें बोयाहुआ तथा निःशंकित आदि आठगुण रूपी उत्तम जल की भरी हुई नलियोंसे सीचा हुवा सम्यग्दर्शनरूपीबीज सम्यग्ज्ञानरूपी शाखाओंकाधारी तथा चारित्र रूपीपुष्प करसहित वृक्षरूपमें परिणत होकर शीघ्र ही भव्यजीवोंको मोक्षरूपी फलसे संतुष्ट करता है। ॥ और भी आचार्य रत्नत्रयकी महिमा दिखाते हैं। हगवगमचरित्रालंकृतः सिद्धिपात्रं लघुरपि न गुरुः स्यादन्यथात्वे कदाचित् । स्फुटमवगतमागों याति मन्दोऽपि गच्छन्नभिमतपदमन्यो नैव तूर्णोऽपि जन्तुः ॥७॥ 90000000000000000000000०००००००००००6666660000000000000000 ॥३॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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