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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २४९०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चविंशतिका । अग्निसे भयंकर घरमें प्रवेश करेगा ? उत्पन्न भावार्थ:- अत्यंत उत्कृष्ट जो पवन उससे जाज्वल्यमान जो अग्निकी ज्वाला उससे भयंकर घर से निकलकर तथा अत्यंत निर्मल जलसे भरी हुई बावड़ी को पाकर जिसप्रकार बुद्धिमान पुरुष फिरसे उस जाज्वल्यमान अग्निसे भयंकर मकानमें प्रवेश नहीं करता । उसीप्रकार यदि मुझमें अत्यन्त निर्मल जो ध्यान उसके आश्रयसे अत्यंत बढ़ाहुवा ऐसा निर्प्रथतासे उत्पन्न हुवा आनंद मौजूद है तो मुझे खोटे ध्यानसे हुवा जो इन्द्रिय संबंधी सुख उसका स्मरण नहीं होसकता है अर्थात् इन्द्रियोंसे उत्पन्नहुवे सुखको में सुख नहीं मान सकता ॥ १७ ॥ जायेतोद्गतमोहतोऽभिलषिता मोक्षेपि सा सिद्धिहत् तद्भूतार्थपरिग्रहो भवति किं कापि स्पृहालुर्मुनिः । इत्यालोचनसंगतैकमनसा शुद्धात्मसंबन्धिना तत्त्वज्ञानपरायणेन सततं स्थातव्यमग्राहिणा ॥ १८ ॥ अर्थः-- यदि उत्पन्न हुवे मोहसे मोक्षमें भी अभिलाषा की जाय तो वह इच्छा मोक्षके नाशकरनेवाली ही होती है इसलिये जो शुद्धनिश्वयनयका आश्रय करनेवाला है वह कहीं भी कैसी भी इच्छा नहीं करता इसलिये जिसमुनिका मन आलोचनाकर सहित है और जो शुद्ध आत्मासे संबंध रखनेवाला है और तत्त्योंके ज्ञानमें दत्तचित्त है उसमुनिको चाहिये कि वह समस्तप्रकारकी परिग्रहोंसे रहित ही रहै ॥ भावार्थ:- समस्तकर्म तथा कमोंके कार्योंका जिससमय सर्वथा नाश होजाता है उसीसमय मोक्षकी प्राप्ति होती है । इच्छा मोहसे उत्पन्न होती है इसलिये वह कर्मका कार्यहोनेपरभी कर्मही है इसलिये मोक्ष के विषय में भी किसी मुनि की इच्छा हो जावे तो वह इच्छा मोक्षकी निषेध करनेवाली ही है अतः जो मुनि शुद्धनिश्चय नयके आश्रयकरनेवाले हैं और मोक्षके अभिलाषी हैं वे कदापि किसी पदार्थमें जरा भी इच्छा नहीं करते For Private And Personal ४९०॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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