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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥४८ 4000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पचनन्दिपश्चविंशतिका । उत्पन्न हुवा जो आनंद उससे मेरा मन इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुवा जो सुख है वह दुःखी ही है ऐसा मानता है सो ठीक ही है क्योंकि जबतक स्वच्छ तथा अत्यंत मधुर और तृप्ति करनेवाली शर्करा (सकर ) की प्राप्ति नहीं होती तभीतक खल अत्यंत मिष्ट मालूम पड़ती है ॥ भावार्थ:-जब तक स्वच्छ अत्यंतमिष्ट तथा तृप्तिकी करनेवाली सकर की प्राप्ति नहीं होती तभीतक मनुष्यको खल अत्यंत मिष्ट मालूम पड़ती है किन्तु जिससमय उत्तम मिष्ट शकर की प्राप्ति होजाती है उससमय वह खल जराभी मिष्ट नहीं मालूम होती उसीप्रकार जबतक जीवोंको गुरूके दोनोंचरणोंसे प्रदत्त जो मोक्षरूपी पदवी उसकी प्राप्तिकलिये जो निर्घथता उससे उत्पन्नहुवा जो आनंद उसका अनुभव नहीं होता तभीतक उनको इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुवा सुख, सुख मालूम पड़ता है किंतु जिससमय उस आनंदका अनुभव होजाता है उससमय इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुवा सुख, सुख नहीं प्रतीत होता किंतु वह दुःखही प्रतीत होता है मुझे उसप्रकारके वचनागोचर आनंदका अनुभव है इसलिये मुझे इन्द्रियोंसे जायमान सुख, दुःख ही है ऐसा सर्वथा मालूम पड़ता है ॥ १६ ॥ निर्ग्रन्थत्वमुदा ममोज्वलतरध्यानाश्रितस्फीतया दुर्ध्यानाक्षसुखं पुनः स्मृतिपथप्रस्थाय्यपि स्यात्कुतः । निर्गत्योद्गतवातबोधितशिखिज्वालाकरालाद्गृहाच्छीतां प्राप्य च वापिकां विशति कस्तत्रैव धीमान्नरः॥ अर्थः-अत्यंत निर्मल जो ध्यान उसके आश्रयसे अत्यंत वृद्धिंगत निर्ग्रथतासे पैदाहुवा यदि हर्ष मेरे मौजूद है तो मुझे खोटेध्यानसे उत्पन्नहुवा जो इन्द्रियसंबंधी सुख उसका कैसे स्मरण होसकता है ? क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष है जो चलती हुई जो पवन उससे जाज्वल्यमान जो अग्निकी ज्वाला उससे अत्यंत भयंकर ऐसे घरसे निकलकर और अत्यंत शीत ऐसी बावड़ी को पाकर फिर उसी जाज्वल्यमान For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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