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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 2010000000000000000000000000000000000000006660016 पचनान्दपश्चविंशतिका । वाले हैं और जिनके नामके स्मरणमात्रमही समस्त जीवोंको आनंद होता है ऐसे श्रीअभिनंदननाथको मैं मुक्तिकेलिये मस्तकलुकाकर नमस्कार करता हूं ॥४॥ सुमतिनाथभगवानकी स्तुति । 'नयप्रमाणादिविधानसंघटं प्रकाशितं तत्त्वमतीव निर्मलम् । यतस्त्वया तत्सुमतेऽत्र तावकं तदन्वयं नाम नमोस्तु ते जिन ॥ अर्थः-हे सुमतिनाथ जिनेन्द्र, जिसमें प्रमाण तथा नयोंका भलीभांति संघट है और जो अत्यंत निर्मल है ऐसा तत्व आपने प्रकाशित किया है इसलिये हेजिनेश आपका नाम सार्थक है तथा आपके लिये नमस्कार हो। भावार्थ:-जिसकी बुद्धि शोभन होवे उसको सुमति कहते हैं यह सुमति शब्दका अर्थ है हे सुमति नाथ जिनेश आपका यह नाम सर्वथा सार्थक है क्योंकि आपने उसतत्वका प्रकाशकिया है जिसतखमें प्रमाण तथा नयका अच्छीतरह संघट है तथा जिसमें किसीप्रकारका दोष नहीं है और इसीलिये जो निर्मल हैं अतः हे प्रभो हे जिनेश आपके लिये नमस्कार है॥५॥ पद्मप्रभतीर्थकरकी स्तुति । रराज पद्मप्रभतीर्त्यकृत्सदस्यशेषलोकत्रयलोकमध्यमः । नमस्युडुबातयुतः शशी यथा वचोऽमृतैर्वर्षति यः स पातुं यः॥ अर्थः-आकाशमें चंद्रमा जिसप्रकार नक्षत्रोंसे शोभित होता है तथा जीवोंको भानंदामृतका वर्षण करता है उसीप्रकार जो पद्मप्रभभगवान तीनोलोकके जो समस्तजीव उनके मध्यभागमें शोभित होते थे क. पुस्तकमें अपटं पदमी पाठ है। २. पुस्खमें पातु नः यह भी पाठ है। १९०९१५०००00000000000000000000000000000000000000 ४३०० For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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