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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ....०००००००००००००००००.40000००००००००60000000000000०००००० पचनान्दपञ्चविंशतिका । संभवनाथभगवानकी स्तुति । पुनातु नः संभवतीर्थकृज्जिनः पुनः पुनः संभवदुःखदु:खिताः। तदर्तिनाशाय विमुक्तिवर्त्मनः प्रकाशकं यं शरणं प्रपेदिरे ॥ अर्थः-बारंबार संसारके दुःखोंसे दुःखित जो प्राणी समस्तसंसारके दुःखोंके नाशकलिये मोक्षके मार्गको प्रकाश करनेवाले ऐसे जिस श्रीसंभवनाथकी शरणको प्राप्त हुए ऐसे श्रीसंभवनाथजिनेंद्र हमारी रक्षा करो अर्थात् ऐसे श्रीसंभवनाथभगवानको हम नमस्कार करते हैं । भावार्थः-जो संभवनाथभगवान प्राणियोंको संसारके दुःखोंसे छुटानेवाले हैं तथा मोक्षके मार्गके प्रकाश करनेवाले हैं और शरणमें आये हुए जीवोंकी रक्षा करनेवाले हैं ऐसे श्रीसंभवनाथभगवान हमारी रक्षा करें ॥३॥ अभिनंदननाथभगवानकी स्तुति । निजैर्गुणैरप्रतिमैर्महानजो नतु त्रिलोकीजनतार्चनेन यः । यतो हि विश्वं लघु तं विमुक्तये नमामि साक्षादभिनंदनं जिनम् ॥ अर्थः-जो अभिनंदनभगवान तीनोंलोकके जनोंसे पूजित हैं इसलिये बडे नहीं है किंतु दूसरोंजीवोंमें नहीं पाये जाय ऐसे जो स्वीयगुण हैं उनसे बडे हैं और जो जन्मकर रहित है तथा जिनसे समस्तलोक छोटा है अर्थात् जो सांसारिक सुखोंको तुच्छ समझते हैं अथवा जिनके ज्ञानके सामने यह लोक बहुत छोटी चीज है ऐसे जीवोंको समस्तप्रकारके आनंदके देनेवाले श्रीअभिनंदनजिनेंद्रको मैं मस्तक झुकाकर ममस्कार करता हूं। भावार्थ:-जो अपने असाधारणगुणोंसे महान है किंतु तीनोंलोकके जीवोंहारा पूजित है इसलिये महान नहीं है तथा जन्म मरण आदिक जिनके पासभी नहीं फटकने पाते और जो समस्त पदार्थो को देखने ...46.०००००००००.............................000000000001 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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