SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir .......................... ܪܕ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनेन्दिपञ्चविंशतिका । रहता है और न गृहस्थपनाही रहताहै इसलिये यतियोंको चाहिये कि वे ब्रह्मचर्यके धारण करनेपर उसका अच्छी तरह पालन करें और यदि ब्रह्मचर्य भलीभांति पालन न करसके तो वे गृहस्थही वने रहे जिससे उन का गृहस्थपनातो उत्तम बना रहै नहीं तो दोनोंही गृहस्थपना तथा व्रतीपना उनके नष्ट हो जावेगें ॥ ११ ॥ और भी आचार्यवर मुनियोंको उपदेश देते हैं। सम्पद्येत दिनदयं यदि सुखं नो भोजनादेस्तदा स्त्रीणामप्यतिरूपगर्वितधियामंगं शवांगायते । लावण्याद्यपि तत्र चंचलमिति श्लिष्टं च तत्तद्गतां दृष्ट्रा कुंकुमकजलादिरचनां मा गच्छ मोहं मुने॥१२॥ अर्थः-रूपसे अत्यंत घमंडयुक्त है बुद्धि जिन्होंकी ऐसी खियोंको यदि दोदिन भी भोजनादिसे मुख न मिले अर्थात् यदि वे दोदिन भी नहीं खाय तो उनका शरीर मुर्देके शरीरके समान मालूम पड़ता है और उनस्त्रियोंके शरीरमें मौजूद जो लावण्य है वह भी चंचल है अर्थात् क्षणभर में विनाशीक है इसलिये हे मुनियो उनस्त्रियों के शरीरमें केसर, काजल, आदिकी रचनाको देखकर मोहित मत हो ॥ भावार्थ:--यदि स्त्रियोंका शरीर नित्य तथा सुंदर, वना रहता और उनके शरीरका लावण्य चंचल न होता तबतो हे मुनियों तुमको उनके शरीरमें केसर तथा काजल आदिकी रचनाको देखकर मुग्ध होना था लेकिन उनका शरीर तो ऐसा है कि यदि वे दोदिमभी भोजन न करें तो वह मुर्देके शरीरके समान फीका पड़जाता है और उनमें जो कुछ लावण्य दृष्टि गोचर होता है वह भी पलभर में नष्ट होजाताहै इसलिये ऐसी निस्सार स्त्रीमें कदापि तुमको मोह नहीं करना चाहिये ॥ १२ ॥ स्त्रीके शरीरकी शोभा क्षणभंगुर है इसबातको आचार्य दिखाते हैंसतां, यहभी स. पुस्ख में पाठ है ०००००००००००००० ॥३४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy