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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५३४० 0000000000000000000000०००००००००००००००००००००.............. पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । धन होवेभी तो वेश्या उनको कहांसे मिलसकती है यदि कहो अपनी युवतिके साथ रति करै सो अपनी स्त्री भी यतिको नहीं मिलसकती क्योंकि पहिले उसस्त्रीके त्यागसेही यति हुवे हैं इसलियेभी दुःखही है यदि कहो कि परस्त्रीके साथ ही रति करें सोभी नहीं बनसकता क्योंकि परस्त्रीसेवियोंको राजा, छेदनभेदन आदि दंड देता है तथा उसस्त्रीका पति भी नानाप्रकारके ताड़न आदि दुःख देता है और स्त्री दोनों जन्मोंके नाशकरने वाली होती है इसलिये ऐसी स्त्रीका मुनिको सर्वथा त्याग करदेना चाहिये ॥ १० ॥ ___आचार्य ब्रह्मचर्यकी महिमाका वर्णन करते हैंदारा एव गृहं नचेष्टकचितं तत्तैर्गृहस्थो भवेत्तत्त्यागे यतिरादधाति नियतं सब्रह्मचर्यं परम् । वैकल्यं किल तत्र चेत्तदपरं सर्वं विनष्टं व्रतं पुंसस्तेन विना तदा तदुभयभ्रष्टत्वमापद्यते ॥११॥ अर्थः-स्त्रीका नामही घरहै किंतु ईटोंसे व्याप्त घर नहीं कहलाता इसलिये उन स्त्रियोंसे ही मनुष्य गृहस्थ होता है और उसस्त्रीके सर्वथा त्यागसे ही यति उत्कृष्ट तथा श्रेष्ट ब्रह्मचर्यको निश्चयसे धारण करते हैं यदि उसब्रह्मचर्यमें किसीकारणसे विकलताहो जावे तो दूसरे २ समस्त व्रत नष्ट हो जाते हैं और उससमय उसब्रह्मचर्यके विना यतिके व्रतीपना तथा गृहस्थपना दोनों नष्ट हो जाते हैं। भावार्थः-स्त्रीके ग्रहणसे तो मनुष्य गृहस्थ कहाजाता है और स्त्रीके त्यागसे यति, वास्तावकरीतिसे ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं यदि ब्रह्मचर्यमें किसीप्रकारकी विकलता (हीनता) हो जावे तो और दूसरे २ भी समस्तवत नष्ट हो जाते है और ब्रह्मचर्यमें विकलताके आजानेके कारण न तो वास्तावकरीतिसे व्रतीपनाही 66000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० १ पश्च र्यम् यहभी क. पुस्तकमें पाठ है। ॥३४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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