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________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३३० Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्यनन्दिपञ्चविंशतिका ।। भावे मनोहरेऽपि च काचिन्नियता च जायते प्रीतिः । अपि सर्वाः परमात्मनि दृष्टे तु स्वयं समाप्यन्ते ॥ ५६ ॥ अर्थः-अत्यंतमनोहरभी पदार्थमें कोई विचित्र तथा निश्चितप्रीति होजाती है किंतु जिससमय परमात्मा का दर्शन होजाता है उससमय उन अन्यपदार्थों में प्रीतिकी समाप्ति होजाती है। भावार्थ:-जबतक मनुष्य परमात्माको नहीं देखता तभीतक उसमनुष्यको बाह्यपदार्थ प्रीतिके करने वाले होते हैं अर्थात् वह बाह्यपदार्थों को प्रिय मानता है किन्तु जिससमय उसको परमात्माका दर्शन हो जाता है उससमय वह बाह्यपदार्थों को अंशमात्रभी प्रिय नहीं मानता अप्रियही मानता है ॥ ५६ ॥ बुद्धिमान् पुरुषोंकें आत्माके साथ विद्यमानभी कर्मोंका सम्बंध अविद्यमान सरीखाही है इसचातको आचार्यवर दिखाते हैं सन्नप्यसन्निव विदां जनसामान्योऽपि कर्मणो योगः। तरणपटूनामृद्धः पथिकानामिव सरित्पूरः ॥ ५७ ॥ अर्थः-यद्यपि कौका संबंध सबप्राणियोंके समान है तोभी बुद्धिमानपुरुषके वह विद्यमानभी नहीं विद्यमानके समानही है जिसप्रकार तैरनेमें चतुररस्तागीरोंको पढाहवा नदीका प्रवाह । भावार्थ:-यद्यपि जिसप्रकार नदीका प्रवाह समस्तप्राणियोंकों समान भयका करने वाला है तोभी जो रस्तागीर तैरनेमें चतुर हैं अर्थात् जिनको तैरना अच्छा आता है उनको वह भयका करनेवाला नहीं होता उसीप्रकार यद्यपि कौका संबंध सबजीवोंके समान है तोभी जो पुरुष बुद्धिमान हैं अर्थात् निनको खपरका विवेक है उनपुरुषोंको आत्माके साथ विद्यमानभी कर्मों का संबंध नहीं विद्यमानसाही है ॥ ५७ ।। तत्वज्ञानियोको हेय तया उपादेयका अवश्य ध्यान रखनाचाहिये इसबातको आचार्यवर दिखाते हैं। ) ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 49܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ॥३३॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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