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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ ३२९॥ www.kobatirth.org पद्म नन्दिपञ्चविंशतिका । हूं तथा शुद्धानुभवके गोचर हूं और चैतन्यस्वरूप तेज हूं ॥ ५४ ॥ समयसार में भी कहा है । उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम् । किमपरमभिदध्मो धानि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥ अर्थः — सबको कषनेवाले इस चैतन्यरूपी तेजके अनुभव होनेपर द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयभी उदयको प्राप्त नहीं होते तथा प्रत्यक्ष तथा परोक्षप्रमाण अस्त होजाते हैं और नाम स्थापना द्रव्य भाव रूपी निक्षेप न जाने कहां चलाजाते है और अधिक कहां तक कहा जावे द्वैत भी दृष्टि गोचर नहीं होता ॥ १ ॥ चैतन्यरूपके जाननेपर सब जाना जाता है तथा चैतन्यरूपके देखने पर सब देखा जाता है इसबातको आचार्यवर दिखाते हैं । ज्ञाते ज्ञातमशेषं दृष्टे दृष्टं च शुद्धचिद्रूपे । निश्शेषबोध्यविषयौ दृग्बोधौ यन्न तद्भिन्नौ ॥ ५५ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थः—जिसचैतन्यस्वरूपतेजके जानने पर तो समस्तवस्तु जानीं जातीं है और देखनेपर समस्तवस्तु देखीं जातीं हैं क्योंकि समस्त जो ज्ञेयपदार्थ वे हैं विषय जिनके ऐसे जो दर्शन और ज्ञान हैं वे आत्मस्वरूप ही हैं आत्मासे भिन्न नहीं है ॥ ५५ ॥ जबतक आत्माका दर्शन नहीं होता तबतक अन्यपदार्थोंमें प्रीति होती है किन्तु जिससमय आत्माका दर्शन होजाता है उससमय बाह्यपदार्थोंमें प्रीति नहीं होती इसबातको आचार्यवर दिखाते हैं ॥ For Private And Personal ********* ॥३२९५
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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