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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४१॥ ....................+000000000000000000000000000400. Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपत्राविंशतिका । चाहता है वह मनुष्य जिसप्रकार मनरहित तथा अंधा मनुष्य रूपको नहीं देखसक्ता उसीप्रकार कदापि उत्कृष्ट स्वरूपको नहीं देख सक्ता है ॥१६॥ यो हेयेतरबोधसंभूतमतिर्मुञ्चन् स हेयं परं तत्वं स्वीकुरुते तदेव कथितं सिद्धत्वबीजं जिनैः। नान्यो भ्रान्तिगतः स्वतोऽथ परतो हेये परेर्थेऽस्य तद्दष्पापं शुचि वम येन परमं तद्धाम संप्राप्यते ॥१७॥ अर्थः-जिसमनुष्यको यहवस्तु त्यागने योग्य है तथा यह वस्तु ग्रहण करने योग्य है इसप्रकारका ज्ञान है वह मनुष्य त्यागनेयोग्य जो वस्तु है उसको छोड़कर ग्राह्यस्वरुपको ग्रहण करता है और वह ग्राह्यस्वरूप का स्वीकारही सिद्धपनेका कारण है ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेवने कहा है तथा जो मनुष्य त्यागनेयोग्य अपनेसे मिन्नपदार्थोर्मि अपनेआप तथा परके उपदेशसे भ्रान्त ( भ्रमसहित) है उसअज्ञानीको अत्यंत निर्मल मार्गकी प्राप्तिनहीं होसक्ती और जबनिर्मल मार्गकीही प्राप्ति नहीं हुई तो वह उत्कष्ट मोक्षस्थानभी, उसको प्राप्त नहीं होसक्ता॥ भावार्थ:-जिस मनुष्यको हेयोपादेयका ज्ञान है वही पुरुष अपनेसे भिन्न त्यागनेयोग्य वस्तुओंको त्यागकर तथा निज ज्ञानानन्दस्वरूपको ग्रहणकर क्रमसे मोक्षको प्राप्त होजाता है किन्तु जिसपुरुषको हेयोपादेय का ज्ञान नहीं है इसीलिये जो अपनेसे भिन्न सर्वथा त्यागनेयोग्य वस्तुओंको भी अपनी वस्तु मानता है वह कदापि मुक्तिको प्राप्त नहीं होसक्ता और न उसको मुक्तिका मार्गही सूझसक्ता है इसलिये मोक्षाभिलाषी पुरुषों को चाहिये कि वे सर्वथा छोड़नेयोग्यवस्तुओंको छोड़कर अपने ज्ञानानंदस्वरुपको ही ग्रहण करें ॥ १७ ॥ साङ्गोपाङ्गमपि श्रुतं बहुतरं सिद्धत्वनिष्पत्तये येऽन्यार्थं परिकल्पयन्ति खलु ते निर्वाणमार्गच्युताः मार्ग चिन्तयतोऽन्वयेन तमतिक्रम्यापरेण स्फुटं निश्शेषश्रुतमति तत्र विपुले साक्षाद्विचारे सति १८ - अर्थ:-अंग तथा उपांग सहित जितना भर शास्त्र है वह समस्त सिद्धपनेकी प्राप्तिकलियेही है किन्तु ॥२४॥ .000000000000000000000................................." For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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