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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 1000000000000000000000000000०००००००००००००००.............. पचनन्दिपश्चविंशतिका । दृष्टिस्तत्वविदः करोत्यविरतं शुद्धात्मरूपे स्थिता शुद्धं तत्पदमेकमुल्वणमतेरन्यत्र चान्यादृशम् । स्वर्णात्तन्मयमेव वस्तु घटितं लोहाच्च मुक्त्यर्थिना मुक्त्वा मोहविजृम्भितं ननु पथा शुद्धन संचर्यताम् ।। अर्थः-जिसप्रकार सोनेसे वनाहुवा पात्र सुवर्ण स्वरूपही होता है तथा लोहसे वनाहुवा पात्र लोहस्वरूप ही होता है उसीप्रकार शुद्धआत्मस्वरूपमें, निश्चलरीतिसे ठहरीहुई तत्वज्ञानीपुरुषकी दृष्टि तो निर्मल देदीप्यमान जो एक अविनाशी मोक्षपद उसको प्राप्त कराती है और तत्वज्ञानरहितपुरुषकी दृष्टि शुद्धात्मस्वरूपसे अतिरिक्तस्थानमें ठहरनेकेकारण मोक्षसे भिन्न जो नरक तिर्यंच निगोद आदि स्थान उनस्थानोंको प्राप्त करती है इस लिये आचार्य उपदेशदेते हैं कि मोक्षके अभिलाषी मनुष्योंको मोहके उत्पन्न करनेवाले मार्गको छोड़कर निश्चयसे शुद्धमार्गसे ही गमन करना चाहिये ॥ १५॥ निदोषश्रुतचक्षुषा षडपि हि द्रव्याणि दृष्ट्वा सुधीरादत्ते विशदं स्वमन्यमिलितं स्वर्ण यथा धावकः। यःकश्चिक्किल निश्चिनोतिरहितःशास्त्रेण तत्वं परं सोऽन्धोरूपनिरूपणं हि कुरुते प्राप्तोमनःशून्यताम्॥ अर्थः-जिसप्रकार सुनार अन्यधातुओंसे मिलेहुवे भी सुवर्णकों नेत्रोंसे जुदा करलेता है उसीप्रकार | विद्वान्पुरुष निष्कलंकशास्त्ररूपीनेत्रसे छहोद्रव्योंको भलीभांति देखकर अन्यद्रव्योंसे मिलेहुवे भी अपने निर्मल आत्मस्वरूपको जुदाकर ग्रहण करते हैं किन्तु जो मनुष्य शास्त्रके विना देखेही उत्कृष्टतत्वका निथय करते हैं वे मनरहित तथा अंधेहोकर रूपको देखना चाहते हैं ऐसा मालूम होता है। भावार्थ:-जबतक छद्मस्थ अवस्था रहती है तबतक विनाशाखके सुने तथा देखे कदापि निर्मल स्व. रूपको प्रहण नहीं करसक्ते इसलिये आत्माके निर्मल स्वरूपको देखनेके अभिलाषी मनुष्यों को अवश्य शास्त्रको देखना तथा सुनना चाहिये किन्तु जो अज्ञानीपुरुष विना शास्त्रके मुने देखेही उत्कृष्ट स्वरूपको देखना २४०॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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