SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १२३७॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ पचनन्दिपञ्चविंशतिका । जिस आत्माका तेज चारों ओरसे रुकगया है अर्थात् न जो आत्मा भलीभांति पदार्थों को जानही सक्ता है और न देखही सक्ता है ऐसे उस आत्माको क्यों महीं दुःख होगा ? अवश्यही होगा किन्तु जिसने समस्त काँको जड़से उड़ादिया है अर्थात् जिसकी आत्माके प्रदेशोंकेसाथ किसीभी कर्मका बन्ध नहीं है ऐसे सिहभगवानको तो अनन्तसुख क्यों नहीं होगा अवश्यही होगा ? ॥१०॥ सिहही अत्यन्ततृप्त है इसबातको आचार्य बतलाते हैं। येषां कर्मनिदानजन्यविविधक्षुतृण्मुखा व्याधयस्तेषामन्नजलादिकोषधगणस्तच्छान्तये युज्यते । सिद्धानान्तुन कर्म तत्कृतरुजो नातः किमन्नादिभिर्नित्यात्मोत्थसुखामृताम्बुधिगतास्तृप्तास्तएवध्रुवम् ११ अर्थ:--जिन जीवोंके कर्मके उदयसे उपन्न हुवे क्षुधा तृषा आदिक रोग हैं. उनजीवोंको उनरोगोंकी शान्तिकेलिये अन्न जल आदिका आश्रय करना पड़ता है किन्तु सिद्धभगवानके तो कर्मही नहीं है तथा कर्मों के अभावसे उनको अन्न जल आदिका आश्रय भी नहीं करना पड़ता इसलिये निश्चयसे अविनाशी और आत्मा सेही उत्पन्न हुवे ऐसे सुखरूपीअमृतसमुद्रमें मम सिद्दही अत्यन्त तुप्त है ऐसा समझना चाहिये । भावार्थ:-संसारीजीवोंको कर्मके उदयसे नानाप्रकारके क्षुधा तृषा आदि रोगोंका सामना करना पड़ता है तथा क्षुधा तृषा आदिके होनेसे उनको उनकी शान्तिकेलिये अन्न जल आदिका आश्रय करना पड़ता है तथा उस अन्नजलसें ही वे अपनेको तृप्त मानते हैं किन्तु वास्तवमें उससे तृप्ति नहीं होसक्ती क्योंकि फिरवेदनाके होनेपर फिर उनको पीड़ा होगी तथा फिर भी उनको जलआदिका आश्रय करनापड़ेगा। किन्तु जिन्होंने समस्त कमीका नाशकरदिया है इसीलिये जिनको अन्नआदिकी भी अवश्यकता नहीं है वेही तृप्त हैं और वे सिडही है इसलिये समस्तजीवोंकी अपेक्षा सिडही अत्यंत तृप्त हैं ॥ ११ ॥ ++0000000000000000......................" ॥२३७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy