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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir .66660.06.0......००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पचनन्दिपनर्विशतिका । से ते इन्द्री तथा ते इन्द्रीसे चौ इन्द्री चौ इन्द्रीसे पंचेन्द्री अधिक ज्ञानी तथा सुखी हैं तो सिद्धोंके समस्त ज्ञानावरणादि कर्मोंका नाश होगया है इसलिये वे तो सर्वजीवोंसे अधिक ज्ञानी तथा मुखी हैंही ॥८॥ यः केनाप्यतिगाढ़गाढमभितो दुःखप्रदैः प्रग्रहेः बद्धोऽन्यश्च नरो रुषा घनतरैरापादमामस्तकम् ।। एकस्मिन् शिथिलेऽपि तत्र मनुते सौख्यं स सिद्धाःपुनःकिंन स्युःसुखिनःसदाविरहिता बाह्यान्तरैर्बन्धनैः अर्थः-कोई मनुष्य किसीमनुष्यको, क्रोधसे अत्यन्त दुःखके देनेवाले, तथा कठिन, बन्धनोंसे पैरसे लगाकर मस्तक पर्यन्त चारो ओरसे बांधै उसबन्धनकी यदि एकभी रस्सी ढीली हो जावे तो वह बधा हुवा भी जीव सुख मानता है फिर जो समस्त बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रहके बन्धनसे रहित है ऐसे सिद्धभगवान क्यों नहीं सुखी होंगे ? अर्थात अवश्यही होंगे। भावार्थ:-आचार्यवर, सिहोंमें सुखकी अधिकता का वर्णन करते हैं कि जो पुरुष पैरसे लेकर शिरपर्यन्त कठिन बन्धनोंसे बंधा हुवा है यदि उस वन्धनकी एक भी लड़ी ढीली हो जावे तो पैरसै शिरतक बंधा हुवा भी वह जीव अपने को सुखी मानता है तब जो सिद्धभगवान् समस्तप्रकारके वाह्य तथा अभ्यन्तर कर्मों के बन्धनोंसे रहित है वे क्यों नहीं सुखी होंगे ? अर्थात् समस्तवन्धनोंसे रहित होने के कारण वे अनन्त सुखके भण्डार अवश्यही हैं इसमें किसीप्रकारका संशय नहीं ॥९॥ सर्वज्ञः कुरुते परं तनुभृतः प्राचुर्यतः कर्मणां रेणूनां गणनं किलाधिवसतामेकं प्रदेशं घनम् । इत्याशास्वखिलासु वद्धमहसो दुःखं न कस्माद्भबेन्मुक्त्यायस्य तु सर्वतःकिमिति नो जायेत सौख्यं परम१० अर्थः-आत्माके एकभी प्रदेशमें सघनरीतिसे व्याप्त इतने अधिक परमाणू हैं कि उनकी गिनती सर्वज्ञको छोड़कर दूसरा कोई नहीं करसक्ता इसीतसे प्रत्येक आत्माके प्रदेशपर अनन्ते २ परमाणुके चिपटने के कारण ....00000000200.00000000000000000000000000000000044444 AROSH For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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