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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥१२॥ - - पचनन्दिपश्चविंशतिका । शिखरणी। गतो ज्ञातेः कश्चिद्धहिरपि न यद्यति सहसा शिरो हत्वा हत्वा कलुषितमना रोदिति जनः । परेषामुत्कृत्य प्रकटितमुखं खादति पलं कले रे निर्विण्णा वयमिहभवचित्रचरितैः ॥ २०॥ अर्थः-यदि कोई अपना भाई पिता पुत्र आदि दैवयोगसे (मरना तो दूर रहे) बाहर भी चलाजावे तथा वह जल्दी लौट कर न आवे तो मनुष्य शिरकूट २ कर रोता है तथा नानाप्रकारके मनमें बुरेभावों का चितवन करता है किन्तु अपने कुटुम्बियोंसे भिन्न दूसरेजीवोंके मांसको उपाट २ कर खाता है तथा लेशमात्र भी लज्जा नहीं करता है इसलिये आचार्य कहते हैं कि अरे कलिकाल तेरे नानाप्रकार के चरित्रोंसे हम सर्वथा विरक्त हैं, अर्थात् तेरे चरित्रों का हमको पता नहीं लगसक्ता ॥ २० ॥ अब आचार्य दो श्लोकोंमें मदिराका निषेध करते हैं। माकिनी । सकलपुरुषधर्मभ्रंशकार्यत्रजन्मन्यधिकमधिकमग्रे यत्परे दुःखहेतुः। तदपि यदि न मद्यं त्यज्यते बुद्धिमद्भिः खहितमिहकिमन्यत्कर्म धर्माय कार्यम् ॥२१॥ अर्थः- यह मदिरा इस जन्ममें समस्त पीनेवालेप्राणियोंके धर्मको मूलसे खोनेवाली हैं तथा परलोकमें अत्यन्त तीव्र नानाप्रकारके नरकोंके दुःनोंकी देनेवाली है ऐसा होने पर भी यदि विहान् मद पीना न छोड़ें तो समझ लेना चाहिये कि उन मनुष्योंके द्वारा अपने हितकारी धर्म के लिये कोई भी उत्कृष्ट कार्य नहीं बनसका क्योंक व्यसनी कुछ मी उत्तमकार्य नहीं करसक्ते ॥ २१ ॥ मन्दाक्रान्ता । आस्तामेतद्यदिह जननी वल्लभां मन्यमाना निन्द्याश्चेष्टा विदधति जना निम्रपाः पीतमद्याः। ॥१२॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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