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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥११॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपश्चविंशतिका । चेतश्चेद्गुरुमोहतो न रमते द्यूते वदन्त्युन्नतप्रज्ञा यद्भुवि दुर्नयेषु निखिलष्वेतद्धुरि स्मर्यते ॥ १८ ॥ अर्थः- इस जूआके विषय में बड़े २ गणधरादिकों का यह कथन है कि मोहके उदयमे मनुष्य की जूआमें प्रवृत्ति होती है यदि मनुष्य के मोहके उपशम होनेसे जूआमें प्रवृत्ति न होवे तो कदापि संसार में इसकी अकीर्त्ति नहीं फैल सक्ती है और न यह दरिद्री ही बन सक्ता है तथा न इसको कोई प्रकारकी विपत्ति घेर सक्ती है और इस मनुष्य के क्रोधलोभादिकी भी उत्पत्ति कदापि नहीं हो सक्ती तथा चोरी आदि व्यसन भी इसका कुछ नहीं करसक्ते और मरने पर यह नरकादि गतियोंकी वेदनाका भी अनुभव नहीं करसक्ता क्योंकि समस्तव्यसनोंमें जूआ ही मुख्य कहा गया है इसलिये सज्जनोंको इस जूवेसे अपनी प्रवृत्तिको अवश्य हटा लेना चाहिये ॥१८॥ आगे दो लोकों में मांस व्यसनका निषेध किया जाता है । सम्धरा । बीभत्सुप्राणिघातोद्भवमशुचि कृमिस्थानमश्लाघ्यमूलं हस्तेनाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्पृष्टुमालोकितुंच तन्मांस भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं यस्य साक्षात्पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्कागतिर्वा न विद्मः॥ अर्थः — देखतेही जो मनुष्यों को प्रवल घृणाका उत्पन्न करनेवाला है तथा जिसकी उत्पत्ति दानप्राणियोंके मारने पर होती है और जो अपवित्र है तथा नानाप्रकारके दृष्टिगोचर जीवोंका जो स्थान है और जिसकी समस्त सज्जन पुरुष निन्दा करते हैं तथा जिसको इस संसार में सज्जनपुरुष न हाथ से ही छूसते हैं और न आंखसे ही देख सक्ते हैं और "मांस खाने योग्य होता है" यह वचन भी सज्जनोंको प्रबल घृणाका उत्पन्न करनेवाला है ऐसे सर्वथा अपावन मांसको जो साक्षात् खाता है आचार्य कहते हैं हम नहीं जान सक्ते उस मनुष्य के कितने पापोंका संसार में संचय होता है ! तथा उसकी कौनसी गति होती है ! ॥ १९ ॥ For Private And Personal 00000000 ॥। ११॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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