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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra H२१५ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । यो सम्मीलने मोक्षस्तस्मादुद्वितयमाश्रयेत् ॥६०॥ अर्थ — चिदानन्द चैतन्यस्वरूप आत्मातो अंतस्तल ( भीतरीतत्व ) है तथा समस्तप्राणियों में जो दया है वह वाह्यतल है और इन दोनोंतलोंके मिलने पर मोक्षकी प्राप्ति होती है इसलिये मोक्षाभिलाषी भव्यजीवों को इन दोनों तवोंका भली भांति आश्रय करना चाहिये ॥ ६० ॥ ज्ञानी अपनीआत्माकी इसप्रकार भावना करता है । कर्मभ्यः कर्मकार्येभ्यः प्रयग्भूतं चिदात्मकम् । आत्मानं भावयेन्नित्यं नित्यानन्दपदप्रदम् ॥ ६१ ॥ अर्थ ः—कमसे तथा कर्मोंके कार्योंसे सर्वथा भिन्न, और किदानन्दचैतन्यस्वरूप, तथा अविनाशी, और आनन्द स्वरूपस्थानको देनेवाले आत्माका ज्ञानीको सदा चितवन करना चाहिये । भावार्थ::-यह आत्मा ज्ञानावरण आदि कमसे जुदा है तथा कर्मोंके कार्यभूत रागद्वेष आदि से भी जुदा है और चैतन्य स्वरूप है तथा अविनाशी और आनन्दस्वरूपमोक्षस्थानका देनेवाला है ऐसा ज्ञानी पुरुषों को अपनी आत्माका चितवन निरंतर करना चाहिये ॥ ६१ ॥ इत्युपासकसंस्कारः कृतः श्रीपद्मनन्दिना । येषामेतदनुष्ठानं तेषां धर्मोऽतिनिर्मलः ॥ ६२ ॥ अर्थः — इसप्रकार श्रीपद्मनन्दि आचार्यने इसउपासक संस्कारकी ( श्रावकाचारकी ) रचना की है जिन पुरुषों की प्रवृत्ति इस श्रावकाचार के अनुसार है उन्हीको निर्मल धर्मकी प्राप्ति होती है । भावार्थः — इसउपासकाचार में जिस आचरणका वर्णन कियागया है उस आचरणके अनुकूल जिन For Private And Personal ।।२१५।।
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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