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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥२१ ॥ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ पअनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थ:-जिनेन्द्रसे कहाहुआ यह आत्मस्वभावरत्नत्रयस्वरूप तथा उत्तमक्षमादिस्वरूपधर्म ऐसी दृढ़तासे धारणकरना चाहिये कि मोक्षपर्यत यह साथ बना रहै ॥ ५६ ॥ दुःखग्राहगणाकीर्णे संसारक्षारसागरे । धर्मपोतं परं प्राहुस्तारणार्थं मनीषिणः ॥ ५७ ॥ अर्थः-नानाप्रकारके दुःखरूपी नक मकरसे व्याप्त इससंसाररूपीखारीसमुद्रसे पारकरनेवाला धर्मरूपी जहाज है ऐसा गणधर आदि महापुरुष कहते हैं इसलिये संसारसे तरनेकी इच्छाकरनेवाले भव्यजीवोंको इसधर्मरूपीजहाजका आश्रय अवश्य लेना चाहिये ॥ ५७ ॥ अनुप्रेक्षा इमान्सद्भिः सर्वदा हृदये धृताः। कुर्वते तत्परं पुण्यं हेतुर्यत्स्वर्गमोक्षयोः ॥ ५८ ॥ अर्थः--जो सजनपुरुष वारंवार इन बारहभावनाओंका चितवन करते हैं वे उस पुण्यका उपार्जन करते हैं जो पुण्य वर्ग तथा मोक्षका कारण है इसलिये वर्गमोक्षके कारणस्वरूपपुण्यको चाहनेवाले भव्यजीवोंको सदा इन बारहभावनाओंका चितवन करना चाहिये ॥ ५८॥ आद्योत्तमक्षमा यत्र योधर्मो दशभेदभाक् । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम ॥ ५९ ॥ अर्थः-उत्तमक्षमा, मादव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन्य, तथा ब्रह्मचर्य, इसप्रकार इन दश धर्मोंका भी श्रावकोंको शक्तिके अनुसार तथा शास्त्रके अनुसार पालन अवश्य करना चाहिये ॥५९॥ अन्तस्तत्वं विशुद्धात्मा वहिस्तत्वं दयाङ्गिषु । ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ २१४॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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