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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir .000000000000000००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पअनन्दिपश्चविंशतिका । दुःखं किञ्चित्सुखं किञ्चिच्चित्ते भाति जडात्मनः । संसारेऽत्र पुनर्नित्यं सर्वं दुःखं विवेकिनः ॥ ७४ ॥ अर्थः-मूर्खपुरुषोंको तो इससंसारमें कुछ सुख तथा कुछ दुःख मालूम पड़ता है किन्तु जो हिताहितके जाननेवाले विवेकी हैं उनकोतो इससंसारमें सब दुःखही दुःख निरन्तर मालूम पड़ता है ॥ ७४ ।। हेयञ्च कर्मरागादि तत्कार्यश्च विवेकिनः। उपादेयं परंज्योतिरुपयोगैकलक्षणम् ॥ ७५ ॥ अर्थः-विवेकीपुरुषको ज्ञानावरणादिकाँका तथा उनके कार्यभूत रागादिकों का अवश्यही त्याग करदेना चाहिये और ज्ञान दर्शन स्वरूप इसउत्कृष्टआत्मतेजको ही ग्रहण करना चाहिये ॥ ७५ ॥ ज्ञानीमनुष्य इसवातका विचार करतेरहते हैं। इन्द्रवजा। यदेव चैतन्यमहं तदेव तदेव जानाति तदेव पश्यति । तदेव चैकं परमास्ति निश्चयाद्गतोऽस्मि भावेन तदेकतां परम् ॥ ७६ ॥ अर्थ:-जो चैतन्य है सो मैंही हूं और वही चैतन्य पदार्थों को जानता है तथा देखता है और वही एक उत्कृष्ट है और निश्चयनयसे स्वभावसे मैं तथा चैतन्य अत्यंत अभिन्न हूं ॥ ७६ ॥ बसन्ततिलका । एकत्वसप्ततिरिय सुरसिन्धुरुच्चैः श्रीपद्मनन्दिहिमभूधरतः प्रसूता । यो गाहते शिवपदाम्बुनिधिं प्रविष्टामेतां लभेत स नरः परमां विशुद्धिम् ॥ ७७॥ 14.00000०००...........०००००००००००००००००००००००००००००० १८७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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