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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ००००००००००००००००००००००००००000000000000............" पचनन्दिपश्चविंशतिका । आमकुम्भस्य लोकेस्मिन् भवेत् पाकविधिर्यथा ॥ ७१ ॥ अर्थः--जिसप्रकार मिट्टीके कच्चेघड़े केलिये पकानेकी विधि एकप्रकारसे तापकाही उपजानेवाली है तो भी बहपाकविधि घड़ेको अमृत (जल) के संगमकरानेवाली होती है अर्थात् पकजानेपरही घड़ा पानी के भरने के योग्य होता है उसीप्रकार यद्यपि वहिरात्माओंको मृत्यु, दुःखके देनेवाली है तोभी ज्ञानियों केलिये वह अमृत (मोक्ष) के समागमकेही लिये होती हैं अर्थात् ज्ञानीपुरुष सदा मृत्युके नाशके लियेही प्रयत्न करते रहते हैं तथा चेतन्य स्वरूपसे भिन्नही मृत्युको मानते हैं इसलिये मृत्युके होनेघरभी उनको दुःख नहीं होत॥७१॥ मानुष्यं सत्कुले जन्म लक्ष्मीबुद्धिः कृतज्ञता। विवेकेन विना सर्व सदप्येतन्न किश्चन ॥७२॥ अर्थः-जो मनुष्य विवेकी नहीं हैं उसका मनुष्यपना, उत्तमकुलमें जन्म, धन, ज्ञान, और कृतज्ञपना, होकर भी, निष्फलही है इसलिये मनुष्योंको विवेकी अवश्य होना चाहिये ॥ ७२ ॥ विवेक किसको कहते हैं इसवातको आचार्यवर बतलाते हैं चिदचिद्धे परे तत्वे विवेकस्तद्विवेचनम् । उपादेयमुपादेयं हेयं हेयञ्च कुर्वतः ॥ ७३ ॥ अर्थः-संसारमें चेतन तथा अचेतन दोपकारके तत्व हैं उनमें ग्रहणकरने योग्यको ग्रहणकरनेवाले तथा त्यागकरनेयोग्यको त्यागकरनेवालेपुरुषका जो विचार है उसीको विवेक कहते हैं । भावार्थः-चैतन्यस्वरूप आत्मातो ग्रहण करने योग्य है तथा जड़ शरीर आदि त्यागने योग्य है ऐसा जो विचार है उसीका नाम विवेक है ।। ७३ ॥ 0000000000000००००००००००००००००००००००००.................... For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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