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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ००००००००००००००००००००००००००००00000000000००००००००००००००००० www.kobatirth.org पयनन्दिपश्चविंशतिका । तदेवैकं परं विद्धि त्रैलोक्यगृहनायकम् । येनेकेन विना शङ्के वसदप्येतदुद्धसम् ॥ ५१ ॥ अर्थः--आचार्य कहते हैं कि हेभव्यजीवो तीनलोकरूपीघरका स्वामी उसीचैतन्यस्वरूपतेजको तुम समझो क्योंकि मैं ऐसी शंकाकरता हूं कि इसएकचैतन्यस्वरूपतेजके विना यह तीनलोकरूपी घर भी बनके समान है। भावार्थ:-यद्यपि यहलोक जीवाजीवादि छै द्रव्योंसे भराहुवा है तो भी इसमें जाननेवाला एक आत्माही है और इसके सिवाय समस्तलोक जड़ही हैं इसलिये यह आत्माही तीनलोकोंका राजा है अतः उत्तम फलके चाहनेवाले भव्यजीवोंको इसीमें लीन रहना चाहिये ॥ ५१ ॥ शुद्धं यदेव चैतन्यं तदेवाहं न संशयः ।। कल्पनयानयाप्येतद्धीनमानन्दमन्दिरम् ॥ ५२ ॥ अर्थ:-जो निराकार, निरंजन, शुद्ध, चिद्रूप है सो मैंही हूं इसमें किसीप्रकारका संशय नहीं है इस प्रकार की कल्पना से भी वह आनन्दस्वरूप शुद्धात्मा रहित है ॥ भावार्थ:-जो शुद्ध चैतन्य स्वरूप है वह मैंही हूं इसमें सिकीप्रकारका संशय नहीं इसप्रकारकी। भी कल्पना उस शुद्धात्मामें नहीं है इसलिये शुद्धात्मा समस्तप्रकारकी कल्पनाओंसे रहितही है ॥५२॥ मोक्षकेलिये की हुई इच्छा भी ठीक नहीं ऐसा आचार्य बताते हैं । स्पृहा मोक्षेपि मोहोत्था तन्निधाय जायते । अन्यस्मै तत्कथं शान्ता स्पृहयन्ति मुमुक्षवः ॥ ५३ ॥ अर्थः-मोहके होतेसन्तेही इच्छा होती है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि यदि मोक्षकेलिये ॥१७॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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