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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । तदेवैकं परं दुर्गमगम्यं कर्मविद्विषाम् । तदेवैतत्तिरस्कारकारि सारं निजं वलम् ॥ ४८ ॥ अर्थः तथा वहीचैतन्यस्वरूप आत्मा एक ऐसा किला है कि जिसमें कर्मरूप वैरी कदापि प्रवेश नहीं करसक्ते और उनकर्मरूपी शत्रुओंका अपमान करनेवाला वही चैतन्य स्वरूप आत्मा एक उत्कृष्ट वल है ॥ भावार्थः – जो मनुष्य चैतन्यस्वरूप आत्माका ध्यान करते हैं उनका कर्मरूपी वैरी कुछ नहीं करसक्ते इसलिये भव्यजीवोंको शुद्धात्माकाही ध्यान करना चाहिये ॥ ४८ ॥ ॥ १७८॥ तदेव महती विद्या स्फुरन्मन्त्रस्तदेव हि । औषधं तदपि श्रेष्टं जन्मव्याधिविनाशनम् ॥ ४९ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थः— और वही चैतन्यस्वरूपीतेज प्रवलविद्या है तथा वही स्फुरायमान मंत्र है और समस्त जन्म जरा आदिको नाश करनेवाली वहीं एक परमऔषधि है ॥ ४९ ॥ अक्षयस्याक्षयानन्दमहाफलभरश्रियः । तदेवैकं परं वीजं निःश्रेयसलसत्तरोः ॥ ५० ॥ अर्थः — और उसी शुद्धात्मारूपीतेजसे अविनाशी तथा अक्षय सुखरूपी उत्तमफल के देनेवाले मोक्षरूपीमनोहरवृक्ष की उत्पत्ति होती है ॥ भावार्थः – जो पुरुष उस शुद्धात्माका अनुभव मनन ध्यान करते हैं उनको अक्षयसुखकी देनेवाली मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है इसलिये भव्यजीवोंका सदा उस आत्माकाही चितवन करते रहना चाहिये ॥ ५० ॥ For Private And Personal ★ ॥१७८॥
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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