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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥१६९॥ 0400600.0000000000000000000000000000000000000000000000. पन्नमाम्दपश्चविंशसिका। - भावार्थ:-शुद्धनिश्चयनयकी दृष्टि में यह आत्मा एक, नित्य, तथा चैतन्यस्वरूपही है किन्तु व्यवहार नयकी अपेक्षासे इसमें प्रमाण तथा नय और निक्षेप आदि भेद दीखते हैं ॥ १७ ॥ अजमेकं परं शान्तं सर्वोपाधिविवर्जितम् आत्मानमात्मना ज्ञात्वा तिष्ठेदात्मनि यःस्थिरः ॥१८॥ स एवामृतमार्गस्य सएवामृतमश्नते सएवाहन जगन्नाथः सएवप्रभुरीश्वरः ॥ १९ ॥ अर्थः-जो पुरुष जन्मरहित और एक तथा शान्तिस्वरूप और समस्तकींकररहित अपनेको अपनेही से जानकर अपने में ही निश्चलरीतिसे ठहरता है वही पुरुष मोक्षको जानेवाला है तथा वहीमनुष्य मोक्षसुखको प्राप्त होता है और वही अर्हन्त तथा जगन्नाथ और प्रभु तथा ईश्वर कहलाता है इसलिये भव्यजीवोंको अपनी आत्मामें अवश्य निश्चलरीतिसे ठहरना चाहिये ॥ १८ ॥ १९ ॥ केवलज्ञानहक्सौख्यस्वभावं तत्परं महः । तत्र ज्ञातेन किं ज्ञातं दृष्टे दृष्टं श्रुते श्रुतम् ॥ २०॥ अर्थः-जो उत्कृष्ट आत्मस्वरूपतेज है वह केवलदर्शन, तथा केवलज्ञान, और अनंतसुखस्वरूपही है इसलिये जिसने इसतेजको जानलिया उसने सबकुछ जानलिया और जिसने इसतेजको देख लिया उसने सबकुछ देखलिया तथा जिसने इसतेजको सुनलिया उसने सबकुछ सुनलिया ऐसा समझना चाहिये ॥२०॥ इति ज्ञेयं तदेवकं श्रवणीयं तदेव हि ।। दृष्टव्यञ्च तदैवैकं नान्यन्निश्चतो बधैः ॥ २१ ॥ .0000000000000००००००००००००००००००००००००००००००००००000000 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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