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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 2000m पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः--आत्माका निश्चयतो सम्यग्दर्शन है तथा आत्मकाज्ञान सम्यग्ज्ञान है और आत्मामें निश्चिल रीतिसे रहना सम्यक्चारित्र है तथा इनतीनोंकी जो एकता वही मोक्षका कारण है ॥ १४ ॥ एकमेव हि चैतन्यं शुद्धनिश्चयतोऽथवा। कोऽवकाशो विकल्पानां तत्राखण्डैकवस्तुनि ॥१५॥ अर्थः-अथवा शुद्धनिश्चयनयसे एक चैतन्यही मोक्षका मार्ग है क्योंकि आत्मा एक अखंड पदार्थ है इसलिये उसमें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र आदि भेदोंका अवकाश नहीं है अर्थात् अखंड तथा एक आत्माके सम्यग्दर्शन आदि टुकड़े नहीं होसक्तं ॥ १५॥ प्रमाणनयनिक्षेपा अर्वाचीने पदे स्थिताः। केवले च पुनस्तस्मिंस्तदेकः प्रतिभासते ॥ ११ ॥ अर्थः-जब तक आत्मा शुहात्मा नहीं हुवा है तभीतक इसमें प्रमाण तथा नय और निक्षेप भिन्न २ । है ऐसे मालूम पड़ते हैं किन्तु जिससमय यह आत्मा शुद्धात्मा होजाता है उससमय इसमें केवल चतन्यस्वरूप आत्माही प्रतिभासता है ॥ १६ ॥ निश्चयैकदृशा नित्यं तदेवेकं चिदात्मकम् । प्रपश्यामि गतभ्रान्तिर्व्यवहारहशा परम् ॥ १७॥ अर्थः-शुद्धनिश्चयनयसे यह आत्मा एक है नित्य है तथा चैतन्य स्वरूप है ऐसा मैं अनुभवकरने वाला अनुभव करता हूं किन्तु व्यवहारनयसे प्रमाणस्वरूप तथा नय और निक्षेपस्वरूप भी में इसआत्माको भलीभांति देखता हूं॥१७॥ ww.0000000000000000००००००००००००००००००र ।१६८॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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