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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥१५६ला पचनन्दिपश्चविंशतिका । को मुट्ठीसे मारता है तथा अत्यंत आकुलहोकर सूग्बीनदीको तिरता है और प्याससे अत्यंत आकुल होकर मरीचिकाको पीता है ऐसा मालूम होता है । भावार्थ:--जिसप्रकार आकाशको मुठीमे मारना सूखीनदीको तिरना और मरीचिकाका पाना विना प्रयोजनका है उसीप्रकार अत्यन्तचंचल तथा विनाशीक संपदा, पुत्र, स्त्री, आदिमें अहंकार करना भी व्यर्थ | है इमलिये विहानों को इनमें कदापि अभिमान नहीं करना चाहिये ॥ ४३ ॥ लक्ष्मी व्याधमृगीमतीवचपलामाश्रित्य भूपा मृगाः पुत्रादीनपरान्मृगानतिरुषा निघ्नन्ति सेयं किल । सज्जीभूतघनापन्नतधनु: संलग्नसंहच्छरं नो पश्यान्त समीपमागतमपि कुद्धं यमं लुब्धकम् ॥४॥ अर्थः-आचार्य उपदेश देतेहैं कि राजारूपी जोमृग है वे अत्यंतचंचल तथा सिकारीकी हिरणीके समान इससंपदाको पाकर पुत्र भाई आदिक जो दूसरे मृग हैं उनको अत्यंत क्रोध तथा ईर्षासे मारते हैं किन्तु बडीभारी आपत्तिरूप धनुषका धारी तथा संहाररूपी बाणको हाथमें लियेहवे और पासमें आयेहवे | क्रोधी यमराजरूपीहिंसककी और कुछ भी लक्ष्य नहीं देते यह आश्चर्यकी बात है। भावार्थ:-जिससमय कोई शिकारी हिरणों के मारनेके लोभसे अपनी पालीहुई मृगीको बनमें छोड़ देता है तथा स्वयं हाथसे धनुष लेकर पासमें बैठ जाता है उससमय जिसप्रकार कामीमृग उसमृगाके लिये परस्परमें लड़ते हैं और एक दूसरेको मारते हैं तथा आईहुई आपत्तिपर कुछभी ध्यान न देकर व्यर्थमें मारे जाते हैं उसीप्रकार ये राजा भी शिकारीकी मृगीके समान इसलक्ष्मीको पाकर परस्परमें लड़ते हैं तथा उसलक्ष्मी के लिये अपने प्रिय पुत्र आदिकोंको भी मारते हैं किन्तु इसबातपर कुछ भी लक्ष्य महीं देते कि हमको आगे क्या २ आपत्ति भोगनी होंगी तथा हमारा कितने कालतक जीवन रहेगा क्योंकि ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀&܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 10000000000000000000000000000000000000000000000 For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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